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शिव स्वरोदय विज्ञान – Shiva Swarodaya PDF Free Download
शिव स्वरोदय ग्रंथ
प्रातभंद्रोरविःसाययदिदेवाच्चलम्यते ॥ मध्यान्होमध्यरात्रेचपरतस्तुप्रवर्ते॥ २२१ ॥ अर्थ-जो यदि दैवयोगसे प्रातःकाल चंद्रमा और सायं काल मृर्यस्वर न मिले तो मध्यान्दसे अथवा आधी रात्रीसे पीठ प्रवर्च होतेहे ॥ २२१ ॥दूरयुद्धेजयीचंद्रःसमीपेतुदिवाकरः ॥ वहनाड्यांगतःपादंसर्वसिद्धिंमजायते ॥ २२२॥
अर्थ-दूर देशमें युद्ध करना हो तो चंद्रमा विजयकारी है समीपदेशके युद्दादिकमें गूर्यविजयकारीहै और जौनसा- स्वर चलताहो उसी सरको आगे करके गमनकरे तो वह गमन सब सिदियोंको देनेवालाहै ॥ २२२ ॥
यात्रारंभेविवाहेचप्रवेशेनगरादिके ॥ शुभकार्येषुसर्वेषुचंद्रवारःपशस्यते ॥ २२३ ॥अर्थ-यात्रारंभ विवाह नगर आदिका प्रवेश इत्यादिक शुभ कार्य चंद्रमाकावर चलतेसमय सिद्ध होते हैं ॥ २२३ ॥
अयनतिथिदिनेशस्वीयतस्वेअयुक्तेयदिवहति कदाचिद्रेहयोगेनपुंसां ॥ सजयतिरिपुसेन्यंस्तं भमात्रःस्वरेणप्रभवतिनचविघ्रकेशवस्यापिलो के ॥ २२४ ॥ अर्थ-अपन, तिथि वार इनके स्वामियोंसे युक्त हुए भाप ने स्वरका तत्व जो यदि पुरुषोंके देवयोगसे वहता होय तो वह पुरुष की सेनाको रूपरंके स्तंभ रोकनेसही जीतता है
और विष्णुके लोकमें प्राप्त दोनेंविषेमी उसके विघ्न नहीं होताह ॥ २२४ ॥ जीवंरक्षजीवरक्षजीवांगेपरिधायच ॥ जीवोजयतियोयुषेजीवनजयतिमेदिनी२२५॥अर्थ-जो पुरुष जीवांग, इदयको बससे आच्छादिकतकर युद्ध जीवरक्ष जीवरक्ष ऐसा जपताद यह संपूर्ण पृथ्वीको जीत लेता।२२५॥
धूমौजलेचकर्तव्यंगमनंशांतिकर्मतु ॥वन्हौवायुप्रदीप्तेषुखेःपुनर्नोभविष्यति ॥२२६॥ मर्य-शांतिके कमि पृथ्वी वा आकाशतत्वमें गमन करे और कूर युद्ध अधिक में अग्नि तथा वायुतत्वके चल.तेसमय गमन करे ॥ २२६ ॥
जीवेनशस्त्रवत्राविजीयेनैपविकाशयेत् ॥ जीवेनभक्षिपेच्छस्रंयुद्धेजयतिसर्वदा ॥ २२७॥ अर्थ-जीव करके शखको बांधे यानें जो नामास्तर चल ताहो उसही अंगमें शब्र्रको धारणकरे और जीवसे जोग सासर चलताहो उसही हाथसे शखको खोले और उसही से शत्रुके प्रति फरके वह पुरुष युद्ध में सदा जीतताहे २२७॥
आकृष्यपाणपवनंसमारोहेतवाहनं ॥ समुत्तरेत्पदंद्यात्सर्वकार्याणिसाधयेत् ॥२२८॥अर्थ-जो पुरुष प्राणवायुको ऊपरीको सींचके सवारी पैच और श्वास उनरते समय, रकार, आदिपै पैर परे वह सब कार्यों को साधताहे ॥ २२८ ॥
अपूर्णेशत्रुसामग्रीपूर्णेवास्ववलंयथा ॥ कुरुतेपूर्वतत्वस्थोजयत्येकोवसुंधरां ॥ २२९ ॥अर्थ-खालीस्वरमें शत्रु की सेना आदिसामग्री तैयार होवे और पूर्ण स्वरमें अपनी सेनाको तैयार करे ऐसे पूर्ण तत्वमें वन्हौवायुप्रदीप्तेषुखेःपुनर्नोभविष्यति ॥२२६॥ मर्य-शांतिके कमि पृथ्वी वा आकाशतत्वमें गमन करे और कूर युद्ध अधिक में अग्नि तथा वायुतत्वके चल.
लेखक | श्रीधर शिवलालजी-Shridhar Shivlalji |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 93 |
PDF साइज़ | 5.5 MB |
Category | धार्मिक(Religious) |
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