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शिव महिम्न स्तोत्र अर्थ सहित – Shiv Mahimna Stotram Lyrics With Meaning PDF Free Download
शिव महिम्न स्तोत्र की कथा
एक समय कोई गन्धर्व किसी राजा के अन्तःपुर के उपवन से प्रतिदिन फूल चुराकर ले जाया करता था। राजा ने चोर पकड़ने की बहुत कोशिश की लेकिन उसे देख न पाता था।
अन्त में राजा ने उस पुष्प चोर का पता लगाने के लिए ये निश्चय किया कि शिव निर्माल्य (भगवान की मूर्ति से उतरे हुए फूल) के लांघने से चोर की अन्तर्धान होने की शक्ति नष्ट हो जाएगी,
इस विचार से राजा ने शिव पर चढ़ी हुई फूल माला उपवन के द्वार पर बिखरवा दी। फलस्वरूप गन्धर्वराज की उस पुष्पवाटिका में प्रवेश करते ही शक्ति कुंठित हो गई।
वह स्वयं को क्षीण समझने लगा। उसने समाधि लगाकर तुरन्त ही इसके कारण का पत्ता लगाया मालूम हुआ कि मेरी शक्ति शिव निर्माल्य के लांघने से कुंठित हुई है ।
यह जानकर उसने परम दयालु श्री शंकर भगवान की ये वर्णन रूपी महिमा (महिम्न स्तोत्र) का गान किया। इसी स्तोत्र के बाद में शिव निर्माल्य तथा शिव स्तुति की विशेष महत्ता का प्रचार हुआ।
इसी स्तुति के रचियता यही गन्धर्व राज श्री पुष्पदन्त थे। इनकी यही रचना पुष्पदन्त विरचित श्री शिव का महिम्न स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई ।
महिम्नः स्तोत्र रचयिता
इस स्तोत्रके रचयिताके रूपमें गन्धवराज पुष्पदन्तको प्रसिद्धि है। जो भगवान् दशकरके गणोमे एक माने जाते हैं। वहाँ तक तो हमारी पहुँच नही है कि हम यह कह सकें कि वे गण कितने विद्वान थे और कैसे थे ।
किन्तु कथा सरित्सागर के अनुसार ये ही पुष्पदन्त पार्वतीशापसे वररुचि या कात्यायन नामसे भूतलमें अवतीर्ण हुए जो महर्षि पाणिनिके साथ सम्बन्धित थे ।
अतएव कथासरित्सागर के अनुसार ये पुष्पदन्त वे हो कात्यासत हैं जिन्होंने पाणितीय राष्ट्राध्यायी पर विश्वविश्रुत वार्तिकग्रन्थ की रचना की ।
हरिवंश पुराणमें भी पुष्पदन्त और पाणिनिको एक हो जगह नाम ग्रहण पूर्वक वर्णन किया है। एवं अन्य पुराणों में तथा महा भारतमें भी ऐसी ही बात उपलब्ध होती है ।
शिवमहिम्न स्तोत्र हिंदी भावार्थ सहित
अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङमनसयो रतद्वयावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि । स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः पदे त्वचीने पतित न मनः कस्य न वचः ॥२॥
पथ सौं अतीत मन बानी के महत्व तव,
स्रुतिहू चकित नेति नेति जो बदति है,
कोन गुन गाव, हे कितेक गुनवारो वह,
काकी उतै अलख अगोचर लौं गति है।
भगत उघारन को धारन करो जो रूप
विविध अनूप जाहि जोड़ रही मति है,
काको मन वाक सदा ध्याइवो चहत नाय
काकी गिरा नायँ गुन गाइबो चहति है || २ ||
हे महेश्वर ! आपकी महिमा वाणी और मन की प्रवृत्ति से बाहर है, इन दोनों की प्रवृत्ति अर्थात् संसार के सब पदार्थों में होती है, अर्थात् हे शिव ! आप से अलग की वस्तुओं को सब कोई जान सकता है, वेद भी सन्देह से ही आपका वर्णन करता है, इसी प्रकार वेद का भी सामर्थ्य नहीं है कि वे प्रत्यक्ष करा दे, तो कौन आपको विनय कर सके वा गुण जान सके । २ ।
लेखक | – |
भाषा | हिन्दी, संस्कृत |
कुल पृष्ठ | 50 |
Pdf साइज़ | 15.5 MB |
Category | Religious |
Mp3
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