कर्मभूमि उपन्यास का सारांश – Karmbhumi Pdf Free Download

कर्मभूमि उपन्यास पर कुछ शब्द
‘कर्मभूमि’ प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया एक महत्वपूर्ण उपन्यास है, जो 1932 में प्रकाशित हुआ था। यह उपन्यास भारतीय समाज, सामाजिक कुरीतियों, स्वतंत्रता संग्राम, और नैतिक मूल्यों को दर्शाता है।
कहानी सार:
उपन्यास का मुख्य पात्र अमरकांत एक आदर्शवादी युवक है, जो सामाजिक अन्याय, जातिवाद और शोषण के खिलाफ संघर्ष करता है। वह समाज सुधार और किसानों के अधिकारों के लिए अपनी सुविधाजनक जिंदगी छोड़कर संघर्ष का मार्ग अपनाता है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने शिक्षा, राजनीति, महिला सशक्तिकरण, छुआछूत और राष्ट्रवाद जैसे विषयों को गहराई से उकेरा है।
मुख्य विषय:
- सामाजिक सुधार और जातिवाद का विरोध
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रभक्ति
- कृषक जीवन और किसान आंदोलन
- नैतिकता और संघर्ष का महत्व
- महिला जागरूकता और नारी सशक्तिकरण
‘कर्मभूमि’ न केवल समाज का यथार्थ चित्रण करता है, बल्कि पाठकों को अपने कर्तव्यों और समाज सेवा के प्रति जागरूक भी करता है। यह प्रेमचंद के श्रेष्ठतम उपन्यासों में से एक है।
अमरकान्त के पिता लाला समरकान्त बड़े उद्योगी पुरुष थे। उनके पिता केवल एक झोंपडी छोड़कर मरे थे मगर समरकान्त ने अपने बाहुबल से लाखों की संपत्ति जमा कर ली थी। पहले उनकी एक छोटी-सी हल्दी की आढ़त थी।
हल्दी से गुड़ और चावल की बारी आई। तीन बरस तक लगातार उनके व्यापार का क्षेत्र बढ़ता ही गया। अब आढ़तें बंद कर दी थीं। केवल लेन-देन करते थे।
जिसे कोई महाजन रुपये न दे, उसे वह बेखटके दे देते और वसूल भी कर लेते उन्हें आश्चर्य होता था कि किसी के रुपये मारे कैसे जाते हैं- ऐसा मेहनती आदमी भी कम होगा।
घड़ी रात रहे गंगा-स्नान करने चले जाते और सूर्योदय के पहले विश्वनाथजी के दर्शन करके दूकान पर पहुंच जाते।
वहां मुनीम को जरूरी काम समझाकर तगादे पर निकल जाते और तीसरे पहर लौटते। भोजन करके फिर दूकान आ जाते और आधी रात तक डटे रहते।
थे भी भीमकाय। भोजन तो एक ही बार करते थे, पर खूब डटकर। दो-ढाई सौ मुग्दर के हाथ अभी तक फेरते थे। अमरकान्त की माता का उसके बचपन ही में देहांत हो गया था। समरकान्त ने मित्रों के कहने-सुनने से दूसरा विवाह कर लिया था।
उस सात साल के बालक ने नई मां का बड़े प्रेम से स्वागत किया लेकिन उसे जल्द मालूम हो गया कि उसकी नई माता उसकी जिद और शरारतों को उस क्षमा-दृष्टि से नहीं देखतीं, जैसे उसकी मां देखती थीं। वह अपनी मां का अकेजा लाड़ला लड़का था, बड़ा जिद, दी, बड़ा नटखट।
जो बात मुंह से निकल जाती, उसे पूरा करके ही छोड़ता। नई माताजी बात-बात पर डांटती थीं। यहां तक कि उसे माता से द्वेष हो गया। जिस बात को वह मना करतीं, उसे बह अदबदाकर करता। पिता से भी ढीठ हो गया। पिता और पुत्र में स्नेह का बंधन न रहा।
लेखक | प्रेमचंद- Premchand |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 279 |
Pdf साइज़ | 1 MB |
Category | उपन्यास(Novel) |
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