माण्डूक्य उपनिषद | Mandukya Upanishad PDF In Hindi

मांडूक्य उपनिषद – Mandukya Upanishad Book/Pustak PDF Free Download

माण्डुक्य उपनिषद गुरुकी भाषा टिका सहित

मन्त्रों में बीज, शक्ति, कीलक का प्रयोग वैदिक मन्त्रों की अपेक्षा अधिक है। वैदिक मन्त्रों में भी कहीं फट्, बषट, स्वाहा आदि बीजों म का प्रयोग भी आगमिक मन्त्रों के समान उपलब्ध होता है।

बीज आदि का ज्ञान आलौकिक अनुभूति के अधीन है। अनेकों वैदिक म मन्त्रों का विनियोग तान्त्रिक पद्धति से होता है। महर्षि का सर्वविदित पाट्त्रिंशादिक गौरीव शाक्त सत्र यद्यपि तान्त्रिक है ।

तथापि इसका ब्राह्मण ने अङ्गीकार किया है । इस विषय की आलोचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक धर्म एवं आगम का साहोदरत्त्व सिद्ध है। इन उभय धर्मों के मिश्रित होने की चर्चा पुराण तथा उपपुराणों में भी मिलती है जैसा कि भागवत पुराण के एकादश स्कन्ध में कहा है –

“वैदिकारतान्त्रिको मिश्रण में त्रिवियोमरयः ।।जिस प्रकार वैदिक धर्म कर्म एवं ज्ञान दो काण्डों में विभक्त है उसी प्रकार आगम धर्म भी कर्मकाण्ड एवं ज्ञान काण्डों में विभक्त है। वैदिक कर्म का विवेचन मीमांसा कल्पसूत्र आदि ग्रन्थों के आधार पर किया जाता है।

किन्तु उदात्त, अनुदात्त आदि स्थरी के संविधान के कारण वैदिक मन्त्री का उच्चारण कठिन है अतः इसके सम्पादन में सरलता न होने से यह कर्म लुप्तप्राय हैं।

इसके विपरीत तान्त्रिक मन्त्र उच्चारण के क्लेश से मुक्त है तथा क्रिया की सरल पद्धति के कारण यह के उपयोग के योग्य सिद्ध है

अत इनका प्रचार एवं लोकप्रियता आज भी देखी जातीजहां तक ब्रह्म दर्शन का प्रश्न है यह वैदिक एवं आगमिक शास्त्रों में समान है। इसके विकार की मीमांसा काश्मीरी एवं दाक्षिणात्य विद्वान आचार्यों ने दार्शनिक पद्धति से की है।

दीक्षित ने शिवार्कमणि दीपिका नामक ग्रन्थ में आगम शास्त्र को वैदिक एवं तान्त्रिक दो भागों में विभक्त किया है। तान्त्रिकों के सप्ताचार में से केवल एक आचार को वैदिक स्वीकार किया गया है।

Sanskrit Shloka With Hindi Explanation

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाँ सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।।

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्ति ।।

भावः – हे देवताओ (आपकी कृपा से) हम कानों के द्वारा कल्याणप्रद शब्दों को सुनें। आँखों से कल्याणप्रद दृश्य देखें। वैदिक यागादिक कर्म में हम समर्थ होवें तथा दृढ़ अवयवों और शरीरों से स्तुति करनेवाले हम लोग केवल देवताओं के हित मात्र के लिए जीवन धारण करें।

महान् यशस्वी इन्द्रदेव हमारा कल्याण करे। परम ज्ञानवान् पूषादेव हमारा कल्याण करे। सम्पूर्ण आपत्तियों के लिए चक्र के समान घातक गरुड़ हमारा कल्याण करे तथा देवगुरु बृहस्पति हमारा कल्याण करे। त्रिविध ताप की शान्ति होवे।

निषेध मुख से वस्तु प्रतिपादन

जो पंचीकृत पंचमहाभूत एवं उनके कार्यरूप स्थूल जगत् में अभिमान करने के कारण विश्वात्मा हो जाग्रदवस्था में विधि, निषेध कर्म जन्य स्थूल विषयों को त्रिपुटी के द्वारा भोगकर पश्चात् स्वप्नावस्था में जाग्रत् के हेतुभूत कर्मों के नाश होने पर और स्वप्न के कर्म उद्बुद्ध होने पर, स्थूल विषयों से भिन्न अपनी बुद्धि से परिकल्पित अविद्या, काम तथा कर्म से उत्पन्न सूक्ष्म विषयों को अपने ही प्रकाश से भोगता है।

पुनः उक्त दोनों ही प्रकार के कर्मों के उपरत हो जाने पर धीरे धीरे इन सभी को अज्ञान से आवृत्त अपने स्वरूप में स्थापित कर सम्पूर्ण स्थूल, सूक्ष्म विषयों का परित्याग कर गुणातीत हो जाता है, वही तुरीय परमात्मा हम व्याख्याता एवं श्रोता सब किसी की विघ्न बाधाओं को दूर कर मोक्ष तथा उसके हेतु ब्रह्मविद्या प्रदान द्वारा रक्षा करे ।। २ ।।

पूर्वपक्ष-अच्छा तो फिर इस शास्त्र का वह प्रयोजन क्या है? सिद्धान्ती- जैसे रोगग्रस्त पुरुष के रोग निवृत्त हो जाने पर स्वस्थता, (नीरोगता) आ जाती है, वैसे ही “मैं दुःखी हूँ” इस प्रकार दुःख में अभिमान करने वाले आत्मा को तत्त्वज्ञान द्वारा द्वैत की निवृत्ति होने पर स्वस्थता यानी आत्मनिष्ठा प्राप्त होती है।

अतः अद्वैत भाव ही इस ग्रंथ का प्रयोजन है। द्वैत प्रपंच अविद्या से उत्पन्न हुआ है, उसकी निवृत्ति विद्या से ही हो सकती है। इसीलिए ब्रह्म विद्या को बतलाने के लिए इस प्रकरण ग्रंथ का आरम्भ किया जाता है। इस विषय में निम्नाङ्कित श्रुतियाँ प्रमाण हैं।

“जिस अविद्यावस्था में द्वैत के जैसा होता है’, ‘जिस अविद्यावस्था में भिन्न के समान होवे, उसी अवस्था में अन्य अन्य को देख सकता है और अन्य अन्य को जान सकता है”,

‘जिस तत्त्वज्ञानावस्था में इस तत्त्वज्ञानी के लिये सब कुछ आत्मा ही हो गया, वहाँ वह किससे किसको देखे और कौन किससे किस को जाने” इत्यादि श्रुतियों से इसी अर्थ की सिद्धि होती है (कि अविद्या के कार्य द्वैत प्रपंच का उपशम विद्या द्वारा ही होता है) ।

लेखक कृष्णानंद बुधोलिया-Krishnanand Budholiya
भाषा हिन्दी, Sanskrit
कुल पृष्ठ 77
Pdf साइज़11.7 MB
CategoryAll Upanishad PDF

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