विदुर नीति श्लोक अर्थ सहित (Vidur Niti) PDF Free Download
दूसरा अध्याय
धृतराष्ट्रका व्याकुल होकर अपने हितकी बात पूछना
विदुरके द्वारा हितकी बात कहनेकी प्रतिज्ञा असत् उपायोंसे सफलता मिले तो भी उधर मन न लगावे और अच्छे उपायोंसे असफलता होती हो तो भी इसके लिये मनमें ग्लानि न करे- इसका प्रतिपादन प्रयोजन, परिणाम और उन्नतिका विचार करके कार्य करनेकी आज्ञा .
कौन राज्यमें स्थिर नहीं रहता और कौन राज्य पाता है, उद्दण्डतासे सम्पत्तिका नाश और परिणामका विचार न करनेसे हानि पचनेयोग्य और परिणाममें हितकर अन्न खानेकी सलाह वृक्षके कच्चे और पके फलोंको तोड़नेसे हानि और लाभ …
राजाको प्रजाकी रक्षा करते हुए ही उससे धन लेना चाहिये, इस विषयमें भ्रमर और मालीका दृष्टान्त
तीसरा अध्याय
धृतराष्ट्रका विदुरसे पुनः धर्मार्थयुक्त वचन कहनेका अनुरोध…
विदुरके द्वारा उपदेश, आर्जव (कोमलतापूर्ण बर्ताव) की प्रशंसा, धृतराष्ट्रको आर्जव नामक गुणको अपनानेका आदेश…
इस लोकमें पुण्यकीर्ति होनेसे मनुष्यकी स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा..
केशिनीके लिये सुधन्वा और विरोचनमें अपनी-अपनी श्रेष्ठताको लेकर विवाद, दोनोंका निर्णयके लिये प्रह्लाद पास जाना, प्रह्लादके द्वारा सुधन्वाका सत्कार, उलटा न्याय देनेवाले वक्ताको प्राप्त होनेवाले दोष, प्रह्लादके द्वारा
सुधन्वाकी श्रेष्ठताका निर्णय और सुधन्वाका विरोचनको प्राणदान
विदुरका धृतराष्ट्रसे भूमिके लिये झूठ न बोलनेका अनुरोध उत्तम एवं कल्याणमयी बुद्धिसे रक्षा और सम्पूर्ण अर्थोंकी सिद्धि,
कपटीको वेद भी पापसे नहीं बचा सकते, सबके लिये त्याग देनेयोग्य दुर्गुण, साक्षी न बनानेयोग्य सात प्रकारके व्यक्ति तथा भयको दूर करनेवाले चार कर्म,
स्वयंवरे स्थिता कन्या केशिनी नाम नामतः । लूपेणाप्रतिमा राजन् विशिष्ट पति काम्यया ॥ ६ ॥
राजन् । एक समयकी बात है, केशिनी नामवाली एक अनुपम सुन्दरी कन्या सर्वश्रेष्ठ पतिको वरण करनेकी इच्छासे स्वयंवर-सभामें उपस्थित हुई॥ ६ ॥
विरोचनोऽथ दैतेयस्तदा तत्राजगाम ह। प्राप्तुमिच्छंस्ततस्तत्र दैत्येन्द्र प्राह केशिनी ।। ७॥
उसी समय दैत्यकुम्मार विरोचन उसे प्राप्त करनेकी इच्छासे बहाँ आया। तब केशिनीने वहाँ दैल्यराजसे इस प्रकार बातचीत की ७॥
केशिन्युवाय किं ब्राह्मणाः स्विच्छ्यांसो दितिजाः स्विद्विरोचन । अथ केन स्म पर्यक्कं सुधन्वा नाधिरोहति ॥ ८ ॥
केशिनी बोली-खिरोचन आाहाण श्रेष्ट होते हैं या दैल्य ? यदि ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं तो सुधन्वा ब्राह्मण ही मेरी शय्यापर क्यों न बैठे ? अर्थात् में सुधन्वासे विवाह क्यों न करू ? ॥ ८ ॥
विरोचन उवाच प्राजापत्यास्तु वै श्रेष्ठा वयं केशिनि सत्तमाः । अस्माकं खल्थिमे लोकाः के देवाः के द्विजातयः ॥ ९ ॥
विरोचनने कहा-केशिनी। हम प्रजापतिकी श्रेष्ठ संतानें हैं, अतः सबसे उत्तम है। यह सारा संसार हमलोगोंका ही है । हमारे सामने देवता क्या है? और आहाण कौन चीज है? ॥ ९॥
फेशिन्गुवाच विरोचन । सुधन्वा प्रातरागन्ता पश्येर्य वां समागती ॥ १० ॥
केशिनी बोली-विरोचन। इसी जगह हम दोनों प्रतीक्षा करे, कल प्रातःकाल सुधन्वा यहाँ आवेगा, फिर मैं तुम दोनोंको एकत्र उपस्थित देगी॥ १० ॥ विरोचन उवाच तथा भद्रे करिष्यामि यथा त्वं भीरु भाषसे ।
लेखक | महर्षि वेदव्यास, Gita Press |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 141 |
Pdf साइज़ | 8.9 MB |
Category | विषय(Subject) |
कृष्ण लाल द्वारा अनुवादित केवल हिंदी में
प्रथम अध्याय १.
एक समय संजय, राजा धृतराष्ट्र के पास आया और कौरवोंकी निंदाकर कहने लगा कि, कल हम राजसभा में आके भीष्म द्रोणादिक जहाँ बैठे होंगे वहाँ सबके सामने पांडवोंका संदेशा कहेंगे फिर जो कुछ होनाहोगा सो होगा.
ऐसा कहके संजय तो घरको गया, और राजा धृतराष्ट्रने अपने दिलमें चिंता करके परम ज्ञानवान बुद्धिवंत निस्पृही, जिसके कहनेसे सुननेवालेको समाधानही होवे, ऐसा जो विदुर उसको बुलाके सब वृत्तांत कहा. और बोला कि, हे विदुर । संजय कल सभामें पांडवोंका
संदेशा कहेगा, सो अवश्य हमारी निंदादी करेगा, यह निश्चय और उनके कहनेसे क्या अनर्थ होगा सो कुछ समझ नहीं पड़ता. जबसे वह कहगया है तबसे मैं बडा चिंतातुर हूँ, निद्रा आती नहीं, शरीर मेरा विकल हो रहा है इस वास्ते तू मुझको ऐसा उपदेश कर कि जिससे मेरा संताप मिटे.
जो तुझको अच्छा दिखे सोकह, हमारे वंशमें तेरे जैसा ज्ञानी सुज्ञ पुरुप दूसरा नहीं है, ऐसे वचन सुनके विदुर बोला कि, संजय तो परमधार्मिक, विवेकवान् और महात्मा है इस वास्ते अन्यथा बोलनेका नहीं, परंतु सच कहो तुमसे तो कुछ अपराध नहीं हुआ ? क्योंकि तू बोलता है निद्रा आती नहीं; सो निद्रा चार जनोंको नहीं आती.
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