ईशादी नौ उपनिषद – Ishadi Nau Upanishad Book/Pustak PDF Free Download

ईशादी नौ उपनिषद के बारेमें
उपनिपदोमे ईश आदि ग्यारह उपनिषद् मुख्य माने जाते है। उनमे बृहदारण्यक और छान्दोग्य-इन दो उपनिषदोका कलेवर बहुत बड़ा है और उनमें विपय भी अत्यन्त कठिन है—
इस कारण उन चिपयोका समझमा-समझाना मुझ-जैसे- अल्पह मनुष्यकी योग्यता के बाहर की बात है, यह सोचकर उन दोनोंको छोड़कर शेष नौ उपनिषदो पर यह व्याख्या लिखी गयी ।
यह व्याख्या विक्रम संवत् २००५ में ईश और केन उपनिषद् पर तो स्वर्गाश्रममें और अवशिष्ट सात उपनिषदोपर गोरखपुर मे पूज्यपाद भाईजी श्रीजयदयालजीकी आज्ञासे ‘कल्याण’ के ‘उपनिपदक’ में प्रकाशित करनेके लिये लिखी गयी थी।
इन नौ उपनिषदोमेसे पहला ईशावास्योपनिषद् तो शुक्ल यजुर्वेदका चालीसवाँ अध्याय है एवं अन्य आठ उपनिषद् आरण्यक और ब्राह्मणग्रन्थोंके भाग हैं।
इन सबमे परब्रह्म परमेश्वरके निर्गुण और सगुण स्वरूपका तत्त्व नाना प्रकारसे समझाया गया है। वेदोका अन्तिम भाग होने के कारण इनको बेदान्तके नामसे भी पुकारा जाता है।
इन उपनिषदोपर प्रधान प्रधान सम्प्रदायोके पूज्यपाद आचार्यों ने अपने अपने मतके अनुसार भाष्य लिखे हैं तथा संस्कृत और हिंदी भाषा में भी महानुभाष पण्डितोने बहुत-सी टीकाएँ लिखी हैं
एवं संस्कृत भाष्य और ठोकाओके हिंदी भाषा में अनुवाद भी प्रकाशित हो चुके हैं। इस परिस्थितिमे मुझ जैसे साधारण मनुष्यके लिये इसपर व्याख्या लिखना कोई आवश्यक कार्य नही था ।
परंतु जब ‘कल्याण’ के विशेषाद ‘उपनिषद’ के निकाले जानेकी वात स्थिर हुई, उस समय पूज्यजनो यह कार्यभार मुझे सौंप दिया। अतएव उनकी आशाके पालनके लिये और अपने आध्यात्मिक विचारोकी उन्नति के लिये
मैंने अपनी समझके अनुसार यह व्याख्या लिखकर ‘उपनिषदक’ में प्रकाशित करवायी थी। अब कुछ मित्रोंका आग्रह होनेसे यथास्थान आवश्यक संशोधन करके इसे पुस्तकाकारमें प्रकाशित किया जाता है।
उदार महानुभाव पण्डित और संतजन मेरी इस वाल-चपलता के लिये क्षमा करेंगे। इसके साथ प्रत्येक उपनिषद्की अलग-अलग विषय-सूची भी सम्मिलित की गयी है, इससे प्रत्येक विषयको खोज निकालनेमे पाठकोको सुविधा मिलेगी।
मानव शरीर
व्याख्या-मानव-शरीर अन्य सभी गरीरोसे श्रेष्ठ और परम दुर्लभ है एव वह ज्येवको भगवान्की विशेष कृपासे अन्म-मृश्युरप ससार-समुद्रसे तरने्े लिये ही मिलता है । ऐसे शरीरको पाकर भी जो मनुष्य
अपने कर्मसमूहको ईश्वर पृजाके लिये समर्पण नहीं करते और कामोपभोगको ही जीवनका परम ध्येय मानकर विषयोरी आसक्ति और कामनावश जिस-किसी प्रकारसे भी केवल विषयोंकी प्राप्ति और उनके
यथेच्छ उपमोगमे ही लगे रहते हैं, वे वस्तुतः आत्माकी हत्या करनेवाले ही है। क्योंकि इस प्रकार अपना पतन करनेवाले वे लोग अपने जीवनको केवल व्यर्थ ही नहीं खो रहे हैं वर अपनेको और भी अधिक
कर्मवन्धनमे जकड रहे हैं । इन काम-भोग-परायण लोगोंको,-चाहे वे कोई भी क्यों न हों, उन्हें चाहे संसारमें क्तिने ही विशाल नाम, यश, वैभव या अधिकार प्राप्त हों, मरनेके वाढ कर्मेक फलस्वरूप बार-चार
उन कूकर, शूकर, कीट-पतगादि विभिन्न शोक-संतापूर्ण आसुरी योनियोंमें और भयानक नरको भटकना पड़ता है -वे परमेश्वर चलते भी हैं और नहीं भी चलते, एक ही कालमें परस्परविरोधी भाव |
लेखक | हरिकृष्णदास गोयन्दका-Harikrishnadas Goyndka |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 446 |
Pdf साइज़ | 15.8 MB |
Category | साहित्य(Literature) |
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