ईशावास्योपनिषद संस्कृत – Isha Upanishad PDF Free Download
ईशावास्योपनिषद संस्कृत श्लोक हिंदी अनुवाद के साथ
‘ईशावास्यम्’ आदि मन्त्रोंका कर्म में विनियोग नहीं है, क्योंकि वे आत्माके यथार्थ खरूपका प्रति पादन करनेवाले हैं जो कि कर्मका शेष नहीं है।
आत्माका यथार्थ स्वरूप शुद्धत्व, निष्पापत्व, एकत्व, नित्यत्व, अशरीरत्व और सर्वगतत्व आदि है। जो आगे कहा जानेवाला है । इसका कर्मसे विरोध है; अतः इन मन्त्रों का कर्ममें विनियोग न होना ठीक ही है।
आत्माका ऐसे लक्षणोंवाला यथार्थ स्वरूप उत्पार्थ, विकार्य’, आप्य और संस्कार्य अथवा कर्ता-भोक्तारूप नहीं है, जिससे कि वह कर्मका शेष हो सके सम्पूर्ण उपनिषदों की परिसमाप्ति आत्माके यथार्थ स्वरूपका निरूपण करनेमें ही होती है तथा गीता और मोक्षधर्मोका भी इसीमें तात्पर्य है अतः आत्मा के सामान्य लोगोंकी बुद्धिसे सिद्ध होनेवाले अनेकत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, तथा अशुद्धत्व और पापमयत्वको
जो ईशन (शासन) करे उसे ईट् कहते है उसका तृतीयान्त रूप शा’ है । सबका ईशन करनेवाला परमेश्वर परमात्मा है । वही सब जीवोंका आस्मा होकर अंतर था- रूपसे सबका ईशन करता है।
उस अपने स्वरुपभूत आत्मा ईशसे सब बास्य-आच्छादन करने योग्य है।
क्या [आच्छादन करने योग्य है] ! यह सब जो कुछ जगती अर्थात् पूधिवीमें जगत् (स्थावर-जंगम प्राणि वर्ग) है यह सब अपने आत्मा
ईश्वर से–अन्तर्यामिरूपसे यह सब कुछ मैं ही हूं–ऐसा जानकर अपने परमार्थसत्यखरूप परमात्मासे यह सम्पूर्ण मिथ्याभूत चशचर आच्टादन करने योग्य है ।
जिस प्रकार चन्दन और अगल अादिकी, जल आदिक सम्बन्धसे गलिपन आदिके कारण उत्पन्न औपाधिक दुर्गन्धि उन ( ) के खरूपको विसनेसे उनके पारमार्थिक गन्धरी आष्टादित हो जाती है, उसी प्रकार अपने आमा में आरोपित सामाविक कर्नव
भोक्तृत्व आदि क्षणोपाला देतरूप जगत् जगतीमें यानी गृधिपीमें- ‘जगथाम् यह शब्द [स्वावर- अंगम सभाका] उपक्षाण कराने होनेरी–इस परमार्थ सत्यरूप आमाको मापनासे नामरूप और कर्ममय
सारा ही रिकारजात परित्यक्त हो जाता है ।इस प्रकार के चर ढी चरा- चर जगत्का आमा है-ऐसी मापनासे युक्त है, उसका पुमादि तीनी एपणाओके यागने ही अधिकार है-पर्में नही ।
उसके एक अर्थात् गसे धमाका पालन करा त्यागा आ अपना मरा हुआ पुत्र या सेवक, अपने सम्बन का अभाव हो जाने के कारण अपना पाउन नहीं करता। अतः पागसे यही इस श्रुतिका अर्थ ह- भोग यानी पालन कर ।
इस प्रकार एपणाओसे रहित होकर तू गर्द अर्थात् धन-विषयक आकांक्षा न कर । किसीके धनकी अर्थात् अपने या पराये किसीके भी धनकी इच्छा न कर । यहाँ ‘सित्’ यह अर्थरहित निपात है ।
अपया आकांक्षा न कर, क्योंकि धन भला किसका है ?-तीन तो किसीका भी नहीं है जो उसकी इच्छा की जाय-ऐसा आक्षेपसूचक अर्थ भी हो सकता है। यह सब आत्मा डी है-इस प्रकार ईश्वरभावनासे यह सभी है ।
लेखक | शंकरभाष्य-Shankarbhashya |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 645 |
Pdf साइज़ | 39.1 MB |
Category | धार्मिक(Religious) |
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