नीतिशास्त्र के मूल सिद्धांत | Nitishastra PDF In Hindi

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नीतिशास्त्र का परिभाषा

“नीतिशास्त्र” की मानक परिभाषाओं में ‘आदर्श मानव चरित्र का विज्ञान’ या ‘नैतिक कर्तव्य का विज्ञान’ जैसे वाक्यांश आम तौर पर शामिल रहे हैं।”

रिचर्ड विलियम पॉल और लिंडा एल्डर की परिभाषा के अनुसार, नीतिशास्त्र “एक संकल्पनाओं और सिद्धान्तों का समुच्चय हैं, जो, कौनसा व्यवहार संवेदन-समर्थ जीवों की मदद करता हैं या उन्हें नुक़सान पहुँचता हैं, ये निर्धारित करने में हमारा मार्गदर्शन करता हैं”।

कैम्ब्रिज डिक्शनरी ऑफ़ फिलोसिफी यह कहती हैं कि नीतिशास्त्र शब्द का “उपयोग सामान्यतः विनिमियी रूप से ‘नैतिकता’ के साथ होता हैं और कभी-कभी किसी विशेष परम्परा, समूह या व्यक्ति के नैतिक सिद्धान्तों के अर्थ हेतु इसका अधिक संकीर्ण उपयोग होता हैं”।

पॉल और एल्डर कहते हैं कि ज़्यादातर लोग सामजिक प्रथाओं, धार्मिक आस्थाओं और विधि इनके अनुसार व्यवहार करने और नीतिशास्त्र के मध्य भ्रमित हो जाते हैं और नीतिशास्त्र को अकेली संकल्पना नहीं मानते हैं।

“नीतिशास्त्र” शब्द के कई अर्थ होते हैं। इसका सन्दर्भ दार्शनिक नीतिशास्त्र या नैतिक दर्शन (एक परियोजना जो कई तरह के नैतिक प्रश्नों का उत्तर देने ‘कारण’ का उपयोग करती हो) से हो सकता हैं।

समाजशास्त्र सामाजिक विकास और हासकी विभिन्न स्थितियों में मानव-जीवनका अध्ययन करता है।

आधुनिक स्थितितक पहुँचने के लिए आदिम बर्बर मनुष्यने किन-किन स्थितियोंका अति क्रमण किया, आज जिस रूपमें समाजको देखते हैं उसकी पूर्वकालमें क्या रूप रेखा थी;

समाजकी उत्पत्ति, विकास और निर्माण समाजशास्त्र किन नियमों द्वारा परिचालित होता है, समाजशास्त्र इनकी क्या व्याख्या करता है।

सामाजिक संस्थाओं, नियमों, अभ्यासों, प्रचलनों, रीतियोंकी उत्पत्ति में कौन विशिष्ट परिस्थितियों कार्य कर रही थीं,

भारतमें अस्पृश्यता, बालविवाह, सतीप्रथा आदि सामाजिक नियम मिलते हैं उनके मूलमें कौन-सी सामाजिक प्रेरणाएँ काम कर रही थीं आदि ऐसी अनेक समस्याओंपर प्रकाश डालकर वह समाजकी वस्तु-स्थितिके बारेमें पूर्ण ज्ञान देता है ।

समाजशास्त्र यथार्थ विशान है । यह यरणनात्मक तथा इतिवृत्तात्मक है और नीतिशास्त्र मनुष्य के आचरणका विज्ञान है। आदर्शविधायक तथा विधि निषेधात्मक है।

वह मनुष्य के कर्म का इस आधारपर मूल्यांकन करता है कि वह एक सामाजिक प्रा्षी है । उसका एकाकी अस्तित्व अचिन्तनीय है ।

यही नहीं, अनुभव, अध्ययन एवं मनोवैज्ञानिक चिन्तनके फलस्वरूप सभी नौतिज्ञ यह मानने लगे है कि मनुष्यके व्यक्तित्वकै निर्माण तथा उसके चारित्रिक गठनमें सामाजिक संस्थाओं, वातावरण एवं परिवेश- का विशिष्ट हाथ है ।

वह अपनी भाषा, संस्कृति, सभ्यता और नैतिक गुणों के लिए बहुत अंशोंतक समाजपर निर्भर है। वह अपने जीवन के सुख, स्वास्थ्य और समृद्धिक लिए, सामाजिक सहयोगकी याचना करता है।

संक्षेपमें, व्यक्ति और समाजका सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है।

इस अनन्य सम्बन्धको सम्मुख रखते हुए ककि नीतिशास्त्र समाजशास्त्रका अंगमात्र उसे अपने नियमों का प्रतिपादन करने के लिए पूर्णरूपसे समाजशास्त्रपर आभित रहना चाहिये।

क्योंकि नैतिकताकी समादि सामाजिक संघटन और उसका एकाकी अस्तित्व अचिन्तनीय है ।

यही नहीं, अनुभव, अध्ययन एवं मनोवैज्ञानिक चिन्तनके फलस्वरूप सभी नौतिज्ञ यह मानने लगे है कि मनुष्यके व्यक्तित्वकै निर्माण तथा उसके चारित्रिक गठनमें सामाजिक संस्थाओं, वातावरण एवं परिवेश- का विशिष्ट हाथ है ।

सुखषाद (परिशेष): सहजज्ञानवादी उपयोगितावाद

हेनरी सिजविक’ने सहजज्ञानवादी उपयोगितावाद का प्रतिपादन किया। उस समय उपयोगितावादकी नींव ढीली पड़ चली थी। नवीन मनोवैज्ञानिक आविष्कारों और विशेषकर मिलकी

विशेषताओं के कारण उपयोगिताबादकी लोकप्रियता क्षीण होने लगी थी। ऐसे समयमें सिजविकने नीतिशास्त्रपर उच्च कोटि का पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ लिखा।

अध्यवसायी और चिन्तनशील होनेके कारण उन्होंने सारग्राही दृष्टिकोणको अपनाया। उनके सिद्धान्तमें विचारोंकी प्रखरता और अभिव्यक्तिकी स्पष्टता मिलती है।

उन्होंने सहजविश्वास के आधारपर कुछ भी स्वीकार नहीं किया। प्रत्येक सत्यको स्वीकार करनेके पूर्व अपनी गूढ़ और गहन विश्लेषणशक्ति द्वारा उसके सब पक्षोंको समझनेका प्रयास किया ।

यही कारण है कि मिलसे प्रभावित होनेपर भी उन्होंने उसे पूर्णरूपसे स्वीकार नहीं किया वरन् मिलके उपयोगितावादका सहजज्ञान वादके साथ समन्वय किया । सत्रहवीं शताब्दी के अन्तमें ब्रिटेन के नीतिज्ञोंने उस सिद्धान्तका प्रति पादन किया जो बादमें उपयोगितावादके नामसे प्रसिद्ध हुआ।

नैतिक सिद्धांत के लक्ष्य

सिजविकके अनुसार नैतिक सिद्धान्त उस बौद्धिक प्रणालीको अपनाता है जिसके द्वारा यह निर्धारित किया जाता है कि प्रत्येक मनुष्यको क्या नैतिक सिद्धान्त करना चाहिये अथवा वह कौन-सा शुभ है जिसे मनुष्य स्वेच्छाकृत कर्मों द्वारा प्राप्त कर सकता है।

नैतिक आदर्श काल्पनिक नहीं, वास्तविक जीवन पर आधारित है। ‘नैतिक चाहिये’ का स्वरूप ‘क्या है’ पर निर्भर है। उसके लिए जीवनकी वास्तविक घटनाओं का अध्ययन आवश्यक है।

इसीसे ज्ञात हो सकता है कि मनुष्यकी सम्भावनाएँ और सीमाएँ क्या हैं ; वह किस ध्येयकी प्राति करना चाहता है ; उसको प्राप्तिके लिए किस साधनका उपयोग किया जा सकता है ; कौन-सा आचरण शुभ है, इत्यादि ।

आचरणके औचित्य और अनौचित्यके वारेमें जो नैतिक नियम और बौद्धिक निदेश (precept) मिलते हैं उनकी सत्यताकी खोज और जाँच करनी चाहिये।

संक्षेपमें नैतिक आदर्शकी स्थापनाके लिए मानव जीवन एवं मानव-स्वभावका सर्वाङ्गीण ज्ञान अनिवार्य है। उसी ध्येयको ‘आदर्श’ मान सकते हैं जो प्रयास द्वारा प्राप्त हो सकता है और उसी नियमको नैतिक कह सकते हैं जो इस दृष्टि (व्यावहारिक) से उपयोगी हो ।

लेखक शांति जोशी-Shanti Joshi
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 643
Pdf साइज़59.7 MB
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