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आयुर्वेद दर्शन – Ayurved Darshan PDF Free Download
आयुर्वेद दर्शन
चचाु मुराय मे ध ऐ र देद का सर बारण किया’ (समावयादी)बह भी कर सकते हैं: आर के बिना ही केवळ मिट्टी, बक, दंड आदि से पटया! को इस तरह का बु्िवार करते हैं ये खेहित हैं। सारक विन प्रमाण द्वारा प्रमेय की सिद्धि होती है मसे यह सिद्ध कितनाचातुपुरुष ही कारण है।
कुछ लोग अर्थात परंपरावादी यह कहते हैं कि “मातृ-पिट परंपरा से पैदा होने वाले पुरुषों में यद्यपि सारूप रहता है और इस कारण उनको पूर्व सटा भी कहा जाता है तथापि बे पूर्व के नहीं हैं; क्यों के अनकी पैदाएक प्रति समय नवीन २ (शरीर का [प्रत्ये क अन- अवयव नष्ट होता है और उसका स्थान नबीन अणु अवयव ग्रहण करता है) होती है।
सारांश प्रत्येक प्राणी आत्म-तत्त्व रहेत पंचधातु विकार समुदाय मात्र होने के कारण और इस समुदाय का परिणाम ही सत्य स होने के कारणतु पुरुष न कुछ करता, न कुछ भोगता और २ अस्तित्व ही रखता है।
इस तरह जो आत्मा का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करते उनके मत से एक के दवा किये हुए कर्म का फल दूसरा भोगता है या नहीं है चूंकि जस कि प्रत्येक प्राणी अपने किये का फल भोगना चाहता है तथ यह कहा कअन्वक्त कमें का अन्य नहीं मोगता
तो संतान में (अथवा नवागत अनुभवयर में) पैतृक विकारों का प्वुर्माव क्यों होता है ? ब्यात यदि बह प्रति समय नवीन है तब उसमें पूर्वाश्च की क्यों होती है ? और यदि यह कहा जाय” कि वह अन्य कत फछ भोगता है
तब उसको प्रति समय नवीन करने के बजाय पूर्व का परिणाम कहना उचित है किंतु जब फি प्रवेक प्राणी अपने किये का ही फल भोगना चाहता है तब इस तरह विधान करना भी अनुचित है।
इन परिषदों में जो ऋषि उपस्थित थे वे भिन्न २ सृष्टि विज्ञान के समर्थक और अधिकांश भिन्न २ आयुर्वेदिक तंत्रों के प्रवर्तक थे | इनका लक्ष्य मुख्यतः भाव स्वभाव, आयु, पुरुष, रोग आदे सृष्टि विज्ञान संबंधी विषयों पर था।
मारूम होता है कि सुष्टिविज्ञान प्रधान परिषदों में प्रायः आयुर्वेद तंत्र प्रवर्तक ही उपस्थित हुआ करते थे। किंतु जो शब्दादि तन्मात्राओं को कारण गुण मानतें थे वे आयुर्वेद तंत्र प्रवर्तक नद्ीं थे।
इन परिषदों का आयुर्वेद में संग्रह किया जाना स्वाभाविक है। पर आयुर्वेद का अध्ययन कभी सर्व॑ साधारण का विषय नहीं रह और इस कारण ही सर्व साधारण समाज इनथध अपरिचित रहा |
यज: पुरुषीय परिषद् में जिन भिन्न २ सुष्टिविज्ञानों का उल्लेख हे उनके स्वरूप, उत्थान, पोवापयय, संबंध आदि पर विचार किया जाय तो तत्यूवेकालीन सइस्रों वर्षों का वह वेज्ञानिक इतिहास उपलब्ध होगा.
जिसके कि आधार पर समस्त आर्षज्ञान विकास को कडियाँ क्रमशः९ (0 घऔर 5 . हि मे ७डी जा सकती हैं। इसमें प्रधान आपत्ति यह हैंके इनका वरण अल्यंत संक्षेप में उपलब्ध होता है।
फिर भी पूव संस्कारों को छोडकर सावधानी से अन्वेषण किया जाय तो इसमें भी सफछ पकहों सकते हैं।
इसके लिये सर्व प्रथम यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि सुष्टिविज्ञानों का यह नाटक शिष्य बुद्धि वैशद्यार्थ नहीं हैं बल्कि किसी समय इनका प्रचार था और इनके आधार पर आयुर्वेदिक तंत्र भी रखे गये थे !
इस सत्व के ही अवस्था विशेष मन व बुद्धि हैं । इसका तत्व संख्यान भी चतुर्विशतिक अथवा पंचविशतिक नही हैं। इस सिद्धांत के सात तत्व हैं; आत्मा, सत्व, रज, तम, वायु, अमे, और सोम । इन को प्राण भी कहते हैं |
इस ब्िभागाव्मक सिद्धांत का अधिक परिचय तो * आयुर्वेद दर्शन के ” पढने के: बाद ही होगा । प्रस्तुत में हम इतना ही व्यक्त करना चाहत हैं कि आयुर्वेद का यह सिद्धांत अपने ढंग का निराला है। द
अनुमान हैं कि इस सिद्धांत का अविकल रूप अभ्िवेश और सुभुत के समव में तथा आगे भी कुछ पीढियों तंक रद्य होगा |
अथवा यूं कद सकते हैं कि अभिवेश ओर सुश्नुतक्ृत तंत्र जबतक अखंडित विद्यमान थे तबतक आयुर्वेद दर्शन भी व्यवस्थित रूप में था | किंतु जब इन तंत्रों के पत्न बिखरने छूगे तब उसकी भी दुदंशा हुईं |
यह ऐतिहासिक सत्य है कि यज्जः पुरुषीय परिषद में जिस सतल्वाद ओर आत्मवाद का उछेख है उनको तदुत्तर काल में कापिल सांख्य ओर वेदांत का रूप प्राप्त हुआ |
इनके आतिरिक्त उस नव द्रव्यवाद का भी उत्थान हुआ जिसकी सामग्री यज्जः पुरुर्षीय सृष्टिवेज्ञानों से ही इकट्ठा की गई थी। ये शब्दादिकों को कारण गुण मानते थे ओर आयुर्वेद दर्शन के साथ इनका इस विषय में ही गहरा मत भेद था। एक ओर इनका प्रचार बढ रहा था तो दूसरी
ओर आयुर्वेद के पत्र बिखर रहे थे। यह तो स्पष्ट ही है कि इस किक जज १ का दुस्वस्था की तह में आयुवंद को अमृतमयी चिकित्सा नहीं थी बल्कि इन संप्रदायों के बुद्धिवाद को अर्वीकृत करने बाछा उसका सूष्टिविज्ञान था । और यह दुरबस्था सदियों तक होती रही ।
लेखक | चंद्रशेखर पाठक-Chandrashekhar Pathak |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 235 |
Pdf साइज़ | 20.2 MB |
Category | आयुर्वेद(Ayurveda) |
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