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ध्यान से चिन्ता निवारण – Meditation Hindi Pdf Free Download
ध्यान से चिन्ता निवारण
सार भाग देह में रक्षित रहता और निस्सार भाग मूत्र -पूरीपादि के रूप में शरीर से बाहर निकलता है. बैसे ही इ्बासादि के द्वारा प्हीत प्राण का सार भाग प्राणमय शरीर में सक्तिब होता रहता है तथा शेष भाग निवासदि के द्वारा बाहर निकल जाता है।
प्राणमय शरीर द्वारा बाह्य प्राण का आकर्षण और फिर उसका बाहर निकलना ही प्राण की विविध गति कही जाती है। किन्तु समस्त कियाएं प्राणमय शरीर से निकलने वाली प्राण धारा से ही सञ्चालित होती है ।
बस्तुतः प्राण सभी प्राणियो के लिए जीवन-पोषक तत्व है। सभी देहधारियों की विभिन्न क्रियाओं में मुख्य कारण यही है। मनुष्यों को इसका अधिक अंश वरदान रूप में प्राप्त हुआ है।
उनकी गति, मति शक्ति का वाहक प्राण ही है यह सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्व होने के कारण सर्वत्र गमन योग्य है।
अग्नि, वायु, जल, आकाश, पृथिवी सभी में इसकी विद्यमानता है। चराचर कोई भी जीव ऐसा नही जो प्राण के बिना रह सकता हो ।
प्राण के द्वारा ही भाव और विचारों के परमाजुओं और प्रकम्पनों का बहन होता है। नक्षत्रों और पृथिवी में जो आकर्षण शक्ति है वह भी प्राण के ही कारण है ।
यह-उपग्रह तथा विच तु आदि में जो विशे पता है वह प्राण की हो है । मरण काल में जब प्राण निकलता है, तब जीवात्मा इसी पर भाकद होकर कर्मानुसार लोक में गमन करता है।
वहाँ भी जब शुभ कर्म मदन रहते है प्राण भी सबल रहता हु आनन्द प्राप्त कराता है और अब शुभ कर्मों का फल भोग समाप्त हो जाता है
तब यह प्राण ही प्राणी का अधागति की प्राप्ति कराता है। मनुष्य में उत्साह, स्फूति, गुमति, सामाव, सूप्त-बूझ, कार्यक्षमता, विवेक, सुख, शान्ति, उल्लास, वृप्ति आदि का होना इस तथ्य को प्रकट
यह शारीरिक मानसिक और आत्मिक हर दृष्टि से हानिकारक है । शास्त्रों और सन्तों ने इससे दूर रहने की प्रेरणा दी है। गीता में कहा है कि काम की तृप्ति होने में विघ्न होने से उस काम से ही क्रोध की उत्पत्ति होती है, अविवेक से स्मृति भ्रश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से सर्वस्व नाश हो जाता है।
महोपनिषद में कहा है कि अहंकार के कारण विपत्ति आती है, अहंकार के कारण दुष्ट मनोव्याधियां उत्पन्न होती हैं। अहंकार के कारण कामनायें उत्पन्न होती हैं। अहंकार से बढ़कर मनुष्य का दूसरा शत्रु नहीं है।
लोभ से मिलावट, बेईमानी, भ्रष्टाचार, चोरी, डकैती आदि सामाजिक रोग उत्पन्न होते हैं जो मानसिक परेशानियां उत्पन्न करते हैं। ईर्ष्या और तो तन और मन दोनों को जलाते ही हैं ।
अर्थववेद २०६६।२४ में कहा है कि मन में जमी हुई बासना, मोह, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोविकार ही मानसिक चिन्ताओं की जड़ है।
अतः मन के भार को हल्का करने के लिए पूर्णरूप से स्वस्थ रहने के लिए मानसिक पापों का परित्याग करना चाहिए मनुष्य की अनिय न्त्रित इच्छायें, अदम्य कामनायें. अपूर्ण अभिलाषाएँ और लालसाएँ गुप्त मन में दबकर तरह-तरह के विकार उत्पन्न करती रहती हैं।
अर्थववेद ७७ में भी है कि बाहरी शत्रु इतनी हानि नहीं कर सकते जितनी अन्त: शत्रु करते हैं । अतः मानसिक स्वास्थ्य की इच्छा के लिए के सब दुभावों को निकाल बाहर करना चाहिए । यही स्वस्थ शान्त और प्रसन्न रहने का रहस्य है।
मानसिक वृत्तियों का संशोधन तभी हो सकता है जब मन स्वस्थ हो, उसकी शक्तियों की उत्तरोत्तर वृद्धि विकास होता रहे, मन पर् विजय प्राप्त हो, उसे अपनी इच्छानुसार प्रेरित किया जा सके, मन सात्विक और स्थिर रहे।
धन को पवित्र, सात्विक, एकाग्र और स्थिर करने के लिए श्वास- प्रश्वास का ध्यान, एक सरलतम साधना है जिसे थोड़ अभ्यास से विक- सित किया जा सकता है और अभीष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है ।
मन में दुर्भाव तभी उत्पन्न होते हैं, जब मन अपवित्र और तामसिक वृत्ति का रहता है। पाप वृत्तियाँ तभी पनप सकती हैं जब मन निवल होता है । निराशा के भावों के उद्दीप्त होना भी दुर्बल मन का सूचक है।
मानसिक चिन्ताएँ भी व्यक्ति को तभी घेरती है जब मन अनिश्चित अर्थात और नशक्त स्थिति में रहता है। मानसिक शक्तियों की अभि- वृद्धि, मन की एकाग्रता व स्थिरता से प्राप्त होती है। श्वास-प्रश्वास ध्यान से एकाग्रता सहज में ही प्राप्त की जा सकती है ।
प्रस्तुत पुस्तक में निर्देशित विधि के अनुसार अभ्यास करने पर श्वास की गति धीरे-धीरे धीमी होती जाती है, ऐसा प्रतीत होता है कि मन का ठहराव हो गया है मन का लय हो गया है, मन रहा ही नहीं।
यह स्थिति आने पर मन गहले में प्रवेश करता हैं, मन की स्थिरता प्राप्त होती हैं, साधक मन पर विजय प्राप्त करता है, मन की निर्बलता दूर होती है और मन एक शक्तिशाली मित्र की तरह हर क्षेत्र में सह- योग देता है।
साधक को ऐसा अनुभव होता है जैसे शांति की लहरें मन रूपी समुद्र में उठकर इधर से उधर आ जा रही है और वह शांति के समुद्र में गोते लगा रहा है। वह घण्टों इस स्थिति में बैठा रहता है। वह उसकी सफलता का सूचक है।
लेखक | डॉ। चमन लाल गौतम-Dr Chaman Lal Gautam |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 161 |
Pdf साइज़ | 55.1 MB |
Category | आयुर्वेद(Ayurveda) |
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