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सूरदास के भ्रमर गीत के पद – Surdas Bhramar Geet Pdf Free Download
भ्रमर गीत विशेषता
सन्दर्भ इस पद में गोपियों ने उद्धव के प्रति अपना दैन्य भाव व्यक्त किया है और वे उन्हें निश्चय रूपेण श्रीकृष्ण का भक्त समझती हैं। उन्हें आश्चर्य है कि फिर भी वे कृष्ण से अधिक महत्व योग को क्यों दे रहे हैं ?
व्याख्या (उद्धव-प्रति गोपियों का कथन) हे उद्धव, हमारी बातों को बुरा मत मानना, क्योंकि हमने अमल में तुमसे बहुत-सी कठोर बातें कह दी हैं। अब तो तुमसे कुछ भी कठोर बातें कहते डरती हैं
क्योंकि बिना सोचे-समझे (बुद्धिहीन) बातें करने से मर्यादा भंग हो जाती है (जैसे गोपियों से बिना सिर-पैर की बातें करने से तुम्हारी मर्यादा भंग हो गयी हैं) सत्य तो यह है
यदि कोई अपना जी जलने पर दूसरों के प्रति अनुचिद या कठोर वाणी का प्रयोग करता है तो अन्ततः उसे पछताना पड़ता है (आवेग जनित कथन बहुत भयावह होता है) ।
हे उद्धव, हमें पूर्ण विश्वास है कि तुम्हें जो कुछ भी मिल जाता है, उसे भगवान का प्रसाद समझकर तुम उनका स्मरण करते हुए उसे पहण करते हो। अर्थात् तुम्हें जो भी प्रतिष्ठा मिलती है
उसका श्रेय तुम श्रीकृष्ण को देते हो (अतः स्पष्ट है कि तुम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति आस्थावान हो और उन्हीं के नाते तुम सम्मानित भी होते हो)। तुम्हारा मन भी श्रीकृष्ण के चरणों में सदैव लगा रहता है
तुम भगवान श्रीकृष्ण के चरणों के भक्त हो) । सूर के शब्दों में का कथन है कि फिर भी आश्चर्य है कि श्याम से बढ़कर तुम योग की की चर्चा करते हो, भला, से किस मूर्ख को योग की बातों पर होगा किसे ऐसी बातें कहते बनेगी ?
भ्रमरगीत रचना का मूल कारण क्या था और इसके पीछे सूर की क्या मानसिकता थी, इन सब पर विचार करते समय तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक परिवेश पर दृष्टिपात करना नितान्त आवश्यक है।
इस सम्बन्ध में मध्यकालीन साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मित्र का कथन है—“ज्ञान की कोरी बचनावली और योग को थोथी साधनादलों का यदि साधारण लोगों में विशेष प्रचार हो तो अव्यवस्था फैलने लगती है।
निर्गुण पंथ ईश्वर की सर्वव्यापकता, भेदभाव की शून्यता, सब मतों की एकता आदि को लेकर बढ़ा, विस पर चलकर अपढ़ जनता ज्ञान की अनगढ़ बातों और योग के टेढ़े-मेढ़े अभ्यास को ही सब कुछ मान बैठी तथा दंभ, अहंकार आदि दुर्वृत्तियों से उलझने लगी।
ज्ञान का ककहरा भी न जानने वाले उसके पारंगत पंडितों से मुँहजोरी करने लगे।
इस कथन से स्पष्ट है कि धर्म और ज्ञान के क्षेत्र में स्थिरता नाम की कोई चीज रह ही नहीं गयी थी। ‘अपनी-अपनी अपना-अपना राग अलापने की प्रवृत्तियों प्रबल हो गई थीं।
वर्ण-व्यवस्था की संकीर्णता और उसकी प्रतिक्रियास्वरूप सामाजिक एकता और अखण्डता के विघटनकारी तत्व और क्षयिष्णु प्रवृत्तियाँ धीरे-धीरे फैलने लगी थीं।
सूर आदि सगुणोपासक कवियों ने इस विषाक्त वातावरण के दुष्परिणाम को पूरी तरह से समझ लिया था, अतः प्रेम और भक्ति की मरसता तथा ज्ञान और योग को नीरसता के लाभालाभ का प्रतिपादन और ताद्वेषयक सूक्ष्म विवेचन इन रचनाकारों का स्पृहणीय एवं अभीष्ट विषय बन गया।
फलतः सूरादि सगुणोपासक कवियों ने निर्गुण को अपेक्षा सगुण मार्ग का अपेक्षाकृत अधिक गुण-गान किया तथा माधुर्य और सौन्दर्य की मूर्ति श्रीकृष्ण के भूलते हुए स्वरूप के प्रति इन्होंने जन-मानस को एक बार पुनः आकृष्ट करने का श्लाघ्य प्रयत्न किया।
श्रीमद्भागवत में इस तथ्य पर विचार नहीं हुआ।
वस्तुतः योग और ज्ञान की साधना इतनी कठिन है कि इसे सामान्य जनता आसानी से ग्रहण नहीं कर सकती।
सूर ने जनता को इस कठिनाई को समझ कर सगुण भक्ति को एक सरल और सुग्राह्य मार्ग की अवतारणा उद्धव-जैसे ज्ञानी पुरुष ‘सरल हृदय भक्ति और प्रेम की प्रतिमूर्ति राधा और गोपियों के रूप में की।
वास्तव में दर्शन के उलझाऊ सिद्धान्त और ज्ञान तत्व का चिन्दन सामान्य गोपियों के लिए नहीं है, अपितु इनके अधिकारी अन्तर्दृष्टिसम्पन्न योग-साधना और ब्रह्म-चिन्तन को गहराई में डुबकियां लगाने वाले सच्चे साधक और तत्वान्वेषी पुरुष हैं।
इस मर्म को न जानने वाले उद्धव को इसी कारण गोपियों ने अज्ञानी की संज्ञा दी है—
अझे अज्ञान ज्ञान उपदेसत ज्ञान रूप हमहीं।
निसि दिन ध्यान सूर प्रभु को अलि देखत जित तितही ॥
ज्ञान-मार्ग पर चलने से हमें संसार की विभूतियों के प्रति माया-मोह त्यागना होगा और अपनी बहिर्मुखी वृतियों को अन्तर्मुखी बनाना होगा। इसी से ऐसे साधक रहस्य और गुहा की उलझनों में निरन्तर फँसा रहता है।
बाह्य जगत को रमणीयता उसके लिए व्यर्थ है-बेकार है।
पर सगुणोपासक भक्त अनुराग से रंबित होता है वह विश्व की विभूतियों में अपने हृदय को तन्मय करके जिस अपूर्व और लोकोत्तर आनन्द की प्राप्ति करता है, वह सब के लिए सुलभ नहीं है।
वह गुहा साधना, दुराव और आन्तरिक जगत के प्रति अनास्थावान रह कर तथा सरल, सीधा भक्ति और प्रेम-मार्ग पर चलकर मंगल तत्व को बटोरता है-ऐसे मार्ग पर वह विरापद चलता है, क्योंकि यह मार्ग निष्कंटक है।
इसी से गोपियों गुणोपासना के मार्ग का विरोध करने वाले शानी उद्धव से बहुत ही आग्रहपूर्वक कहती है.
लेखक | किशोरी लाल-Kishori Lal |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 289 |
Pdf साइज़ | 44.2 MB |
Category | साहित्य(Literature) |
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