रुद्रयामल तंत्र | Rudrayamala Tantra PDF In Hindi

‘रुद्रयामल तंत्र’ PDF Quick download link is given at the bottom of this article. You can see the PDF demo, size of the PDF, page numbers, and direct download Free PDF of ‘Rudrayamala Tantra’ using the download button.

रुद्रयामल तंत्र पुस्तक – Rudrayamal Tantra Book PDF Free Download

रूद्रयामल तन्त्रोक्तं कालिका कवचम् – Shri Rudrayamala Tantrokta Kalika Kavacham Lyrics

विनियोग

ॐ अस्य श्री कालिका कवचस्य भैरव ऋषिः,

अनुष्टुप छंदः, श्री कालिका देवता,

शत्रुसंहारार्थ जपे विनियोगः ।

ध्यानम्

ध्यायेत् कालीं महामायां त्रिनेत्रां बहुरूपिणीं।

चतुर्भुजां ललज्जिह्वां पूर्णचन्द्रनिभाननां।।

नीलोत्पलदलश्यामां शत्रुसंघविदारिणीं।

नरमुण्डं तथा खड्गं कमलं च वरं तथा।।

निर्भयां रक्तवदनां दंष्ट्रालीघोररूपिणीं।

साट्टहासाननां देवी सर्वदा च दिगम्बरीम्।।

शवासनस्थितां कालीं मुण्डमालाविभूषिताम्।

इति ध्यात्वा महाकालीं ततस्तु कवचं पठेत्।।

कवच पाठ प्रारम्भ

ऊँ कालिका घोररूपा सर्वकामप्रदा शुभा ।

सर्वदेवस्तुता देवी शत्रुनाशं करोतु मे ।।

ॐ ह्रीं ह्रीं रूपिणीं चैव ह्रां ह्रीं ह्रां रूपिणीं तथा ।

ह्रां ह्रीं क्षों क्षौं स्वरूपा सा सदा शत्रून विदारयेत् ।।

श्रीं ह्रीं ऐंरूपिणी देवी भवबन्धविमोचिनी।

हुँरूपिणी महाकाली रक्षास्मान् देवि सर्वदा ।।

यया शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुरः।

वैरिनाशाय वंदे तां कालिकां शंकरप्रियाम ।।

ब्राह्मी शैवी वैष्णवी च वाराही नारसिंहिका।

कौमार्यैर्न्द्री च चामुण्डा खादन्तु मम विदिवषः।।

सुरेश्वरी घोर रूपा चण्ड मुण्ड विनाशिनी।

मुण्डमालावृतांगी च सर्वतः पातु मां सदा।।

ह्रीं ह्रीं ह्रीं कालिके घोरे दंष्ट्र व रुधिरप्रिये ।

रुधिरापूर्णवक्त्रे च रुधिरेणावृतस्तनी ।।

“ मम शत्रून् खादय खादय हिंस हिंस मारय मारय

भिन्धि भिन्धि छिन्धि छिन्धि उच्चाटय उच्चाटय

द्रावय द्रावय शोषय शोषय स्वाहा ।

ह्रां ह्रीं कालीकायै मदीय शत्रून् समर्पयामि स्वाहा ।

ऊँ जय जय किरि किरि किटी किटी कट कट मदं

मदं मोहयय मोहय हर हर मम रिपून् ध्वंस ध्वंस भक्षय

भक्षय त्रोटय त्रोटय यातुधानान् चामुण्डे सर्वजनान् राज्ञो

राजपुरुषान् स्त्रियो मम वश्यान् कुरु कुरु तनु तनु धान्यं

धनं मेsश्वान गजान् रत्नानि दिव्यकामिनी: पुत्रान्

राजश्रियं देहि यच्छ क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्षः स्वाहा ।”

इत्येतत् कवचं दिव्यं कथितं शम्भुना पुरा ।

ये पठन्ति सदा तेषां ध्रुवं नश्यन्ति शत्रव: ।।

वैरणि: प्रलयं यान्ति व्याधिता वा भवन्ति हि ।

बलहीना: पुत्रहीना: शत्रवस्तस्य सर्वदा ।।

सह्रस्त्रपठनात् सिद्धि: कवचस्य भवेत्तदा ।

तत् कार्याणि च सिद्धयन्ति यथा शंकरभाषितम् ।।

श्मशानांग-र्-मादाय चूर्ण कृत्वा प्रयत्नत: ।

पादोदकेन पिष्ट्वा तल्लिखेल्लोहशलाकया ।।

भूमौ शत्रून् हीनरूपानुत्तराशिरसस्तथा ।

हस्तं दत्तवा तु हृदये कवचं तुं स्वयं पठेत् ।।

शत्रो: प्राणप्रतिष्ठां तु कुर्यान् मन्त्रेण मन्त्रवित् ।

हन्यादस्त्रं प्रहारेण शत्रो ! गच्छ यमक्षयम् ।।

ज्वलदंग-र्-तापेन भवन्ति ज्वरिता भृशम् ।

प्रोञ्छनैर्वामपादेन दरिद्रो भवति ध्रुवम् ।।

वैरिनाश करं प्रोक्तं कवचं वश्यकारकम् ।

परमैश्वर्यदं चैव पुत्र-पुत्रादिवृद्धिदम् ।।

प्रभातसमये चैव पूजाकाले च यत्नत: ।

सायंकाले तथा पाठात् सर्वसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ।।

शत्रूरूच्चाटनं याति देशाद वा विच्यतो भवेत् ।

प्रश्चात् किं-ग्-करतामेति सत्यं-सत्यं न संशय: ।।

शत्रुनाशकरे देवि सर्वसम्पत्करे शुभे ।

सर्वदेवस्तुते देवि कालिके त्वां नमाम्यहम् ।।

रुद्रयामल तंत्र – Rudrayamal Tantra

ओङ्कारः सकलागम-प्रसृमर-ब्रह्मोपमः सर्वदा
स्वच्छन्दः श्रुति-सार-सम्भृत-वर-स्वारस्य-सन्तर्पितः ।
ओमादि-त्रितयेन यः स्वरयुतः सव्यञ्जनो यामलः
स्वान्तर्नाद-निनादितः स दिशतु श्रेयः सदा बिन्दुयुक् ॥ १॥

बिन्दोः पश्चात् त्रिकोणं यदतिरुचिकरं राजते यन्त्रराजे
तस्मिन् दिव्यं गुरूणां त्रितयमपि लसत्यञ्जसैवौघरूपम् ।
अस्य प्राप्य प्रसादं तरति भुवि जनः सागरं संसृतेः स्राग्
दिव्याद्योघत्रयं तत्सुचरणसरणिः सन्निधत्तां हृदब्जे ॥ २॥

हृद्यानां सर्वविद्यानां, विद्योतन-पटीयसी ।
सच्चिदानन्द कलिका, चिदुद्याने विकासताम् ॥ ३॥

तन्त्राणांसकलाऽपि वाङ्मयसरिद् यस्याननान्निःसृता
भूलोकं पुरुषार्थ-साधनविधौ सम्प्रेरयन्ती सुखम् ।
सा मन्त्रोर्जित-यन्त्र-तन्त्र-निचिता योगक्रियाऽऽयोजिता
नानाऽर्चा-विधि-राजिताऽमृतमयी विश्वं सदा सिञ्चति ॥ ४॥

योऽवातीतरदत्र यामलमयं तन्त्रं स्वतन्त्रं दिशन्
विश्वेषां निगमागमोदितशुभज्ञानक्रमाणां निधिम् ।
लोकानां हितसाधनाय भुवने प्रासारयत् सर्वतो
भूयाद् भूतिविभूषणः सः भगवान् रुद्रः सदा श्रेयसे ॥ ५॥

अनेक-तत्त्व-सङ्कुलं, विभिन्न-मार्ग-मञ्जुलं
शिवा-शिवोक्तिजं फलं, पवित्रयच्च भूतलम् ।
उपासना-विधेर्बलं प्रवर्धितुं सुनिश्चलं
मलं हरद् धियामलं चकास्तु “रुद्रयामलम्” ॥ ६॥

यद् भैरवी-भैरव-भाव-भूषितं
तन्त्राङ्गगणे कल्पतरूपमं स्थितम् ।
पुष्पैः फलैः सर्वसमोहितप्रदं
राराजतां तद् भुवि “रुद्रयामलम्” ॥ ७॥

दयामय दिव्य दम्पती और उनकी अपूर्व देन

॥ ॐॐ नमस्तस्यै चित्कलामय्ये |

निगमागम-विज्ञान विश्वकोश-विभावितम्

श्रयामि सुभियेऽनान्तं खोऽहं रुद्रयामलम् ॥

अपार करुणामूर्ति जगज्जननी भगवती शिवा और शिव ही समस्त सृष्टि के स्रष्टा हैं। इनकी कृपा से ब्रह्मादि देव आविर्भूत होकर आदेशानुसार सृष्टि, स्थिति और संहृति में प्रवृत्त होते हैं।

अखिल ब्रह्माण्डनायिका भगवती एवं अखिल ब्रह्माण्डनायक भगवान् एकरूप होते हुए भी लोकानुग्रह के लिए द्विधा रूप ग्रहण करते हैं और दिव्य दम्पती के रूप में शब्दार्थमयी सृष्टि को भो विकसित करते हैं। ये ही ब्रह्मस्वरूप हैं, अतः निगम और आगम की सृष्टि भी इनके द्वारा ही हुई है।

ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव में कोई भेद नहीं है। लोक बोध के लिए इनका पृथक्-पृथक् निरूपण किया गया है, किन्तु तत्त्वतः इनकी पृथक्ता नहीं है। वैसे यह भी स्पष्ट है कि इनके मूल में शक्ति ही आदि तत्त्व है, जिसके द्वारा स्वेच्छा-विलास के लिए देव-सृष्टि हुई है।

तन्त्र शास्त्रों के अनुसार ये आदि दम्पती लोक कल्याण की उदार भावना से परस्पर संवाद रूप में, प्रश्नोत्तर रूप में कर्तव्य कर्मों का चिन्तन प्रस्तुत करते रहते हैं। इनकी अनन्तरूपता के अनुसार ही अनन्त शास्त्रों का उद्भव होता रहा है।

यह आवश्यक भी है, क्योंकि माता पिता यदि वालकों की शिक्षा व्यवस्था न करें तो और कौन करे ? जब स्वयं ब्रह्मादि देव भी प्रादुभूत होने के पश्चात् अबोध की भांति ‘कोऽहं कुतः आयातः, का मे जननी को मे तात: ?

इत्यादि नहीं जान पाए तो उन्हें भी इन्हीं ने कृपापूर्वक ज्ञान दिया था। निगम और आगमों के सम्बन्ध में सर्वोल्लास-तन्त्र’ का स्पष्ट कथन है कि

निर्गतं शिववक्त्रेभ्यो गतश्च गिरिजाननम् ।

मतः श्रीवासुदेवस्य तस्मान्निगम उच्यते ॥

तथा – ‘आगतः शिववक्त्रेभ्यो’ इत्यादि । इसके अनुसार दोनों ही शास्त्र शिव और गिरिजा के समन्वित विचारों की परिणति हैं और भगवान् विष्णु इनके सम्मति सहमति दाता हैं।

आगमों का विस्तार पारम्परिक ज्ञान-प्रदान से होता रहा है। सर्वप्रथम वासुदेव ने निगम-आगम के ज्ञान को सुना। उन्होंने गणेश को सुनाया और गणेश ने नन्दीश्वर को । इस प्रकार क्रमश: निगमागम ज्ञान भूतल पर व्याप्त हो गया।

आ शास्त्रों की परम्परा में निगम शब्द का तात्पर्य ‘वेद’ माना गया है और आगम शब्द समस्त तन्त्र शास्त्रीय ग्रन्थों का परिचयात्मक माना जाता है।

यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शिव-शक्ति द्वारा केवल आगमों का प्रकाशन नहीं किया गया, अपितु आगमों के अतिरिक्त यामल, डामर तथा तन्त्र के नाम से व्याप्त सभी साहित्य की सर्जना भी इन्हीं के द्वारा हुई है।

तन्त्र-साहित्य में आम्नाय, सून, संहिता, उड्डीश अर्णव, कल्प, मत, अष्टक, चूडामणि, चिन्तामणि आदि जो विभिन्न प्रकार का साहित्य उपलब्ध होता है, वह सभी इस दिव्य दम्पती की दया का ही परिणाम है। अनन्त तन्त्र शास्त्र उनकी अपूर्व देन है।

लेखक रुद्रदेव त्रिपाठी-Rudradev Tripathi
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 300
PDF साइज़102.5 MB
CategoryAstrology
Source/Creditsarchive.org

Related PDFs

Shani Ke Upay Lal Kitab PDF In Hindi

Tantra Shakti PDF In Hindi

Yantra Shakti PDF In Hindi

Kamasutra PDF In Hindi

रुद्रयामल तंत्र पुस्तक – Rudrayamal Tantra PDF Free Download

2 thoughts on “रुद्रयामल तंत्र | Rudrayamala Tantra PDF In Hindi”

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!