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यन्त्र शक्ति भाग 1,2 – All Yantra Shakti Pustak PDF Free Download

यन्त्र-साधना सर्वसिद्धि का उत्तम द्वार
प्राणियों में सब से महत्त्वपूर्ण प्राणी मनुष्य है। मनुष्य का जन्म अनेक सुकृतों के फलस्वरूप होता है। इस जन्म में आकर भी अनेक व्यक्ति व्यर्थ के कार्यकलापों में अपना अमूल्य समय व्यतीत कर देते हैं।
ईश्वर कृपा से जो वञ्चित रहते हैं वे कभी सोचते भी नहीं कि हमारा जन्म किस लिये हुआ है ? हमारा कर्तव्य क्या है ? किस महान् लक्ष्य की पूर्ति के लिये हमें अग्रसर होना है ? बस, केवल आहारनिद्राभयमंचूनं च इत्यादि सामान्य बातों में जो कि पुरुष और पशु में समान रूप से व्याप्त रहती हैं, उनकी प्रवृत्ति रहती है।
बहुत थोड़े लोग ऐसे होते हैं जिन्हें भगवत्कृपा, सद्गुरु कृपा एवं पूर्वपुण्यों अथवा पूर्व संस्कारों के प्रभाव से अच्छे कर्मों के प्रति आग्रह होता है। सदाचार के प्रति झुकाव होता है। सन्मार्ग पर चलने की भावना जागती है।
सत्सङ्गति से कुछ जान लेने की, पा लेने की अभिरुति होती है। उनमें भी कुछ लोग जानकर भी पाकर भी कुछ कर नहीं पाते। केवल बुद्धि-विलास तक ही उनकी परिचर्याएँ होती हैं। परिचर्या के अन्तर में प्रवेश बहुत कम व्यक्ति कर पाते हैं।
अब जो लोग कुछ साधना की इच्छा रखते है तो उनकी सबसे पहली अपेक्षा होती है— सीधे सरल और निश्चित निर्देश की और यह कार्य सद्गुरू के अधीन होता है। गुरु भी कोई सरलता से नहीं मिल जाते।
उनकी प्राप्ति में भी हमारा पुण्योदय ही सहायक होता है। आज कई विद्वानों द्वारा लिखित ग्रन्थ भी गुरु की कुछ अंशों में पूर्ति करते हैं। उनसे कुछ निर्देश मिल जाते हैं तो यह प्रश्न सामने आता है कि क्या क्या करें ?
क्योंकि मानव-जीवन जितना विशाल है उससे कहीं अधिक उस की आकाक्षाएं हैं । पद-पद पर कोई न कोई कठिनाई अपना बेसुरा राग आलापती खड़ी ही रहती है।
प्रायः यह स्थिति बनती ही रहती है कि जो सोचते है वह दूर चला जाता है और जो कभी सोचा ही नहीं है, वह पास चला जाता है। ऐसी ही स्थिति का उल्लेख करते हुए भगवान् राम ने कहा था
यच्चिन्तितं तदिह हरतरं प्रयाति,
यच्चेतसाऽपि न कृतं तविहाम्युपैति ।
प्रातर्भवामि वसुधाधिप चक्रवर्ती,
सोऽहं व्रजामि विपिने जटिलस्तपस्वी ॥
“जो सोचा था वह दूर बहुत दूर चला गया। जो मन में भी नहीं आया या वह पास आ रहा है। सोचा था कि मैं प्रातः होते ही एक बहुत बड़ा पृथ्वीपति चक्रवर्ती बन जाऊंगा, वही मैं जटा धारण कर तपस्वी के रूप में वन में जा रहा हूं।”
यह स्थिति मानव जीवन में बहुधा आती ही रहती है। अतः कहा जाता है कि मानव को अपेक्षा और आकांक्षा अनन्त-व्यापिनी हैं। मानव की लोभवृत्ति के कारण जितनी आवश्यकता या अपेक्षा होती है, वह वहीं तक इच्छाओं-आकांक्षाओं को सीमित नहीं रख पाता है।
वह तो भविष्य की ओर झांकता हुआ भूत की नींव पर वर्तमान के महल खड़े करता है। इसका फल भी उसे महत्त्वाकांक्षी बनाता रहता है। महत्त्वाकांक्षा कोई दुर्गुण नहीं है और त कोई असम्भव को सम्भव बनाने की वस्तु है।
केवल इसकी पूर्ति के लिए किए जाने वाले प्रयासों का पन्य सत् होना चाहिए। आज के युग में सन्मार्ग पर चलकर आकांक्षाओं की पूर्ति का प्रयास करना किसी को रुचिकर नहीं प्रतीत होता अथवा यो कहिए कि ‘सन्मार्ग पर चलने से आकांक्षाओं की पूर्ति होगी इस पर कोई विश्वास ही नहीं करता है।
यही कारण है कि लोग कुमार्ग पर प्रवृत्त हो जाते हैं, और अपने पूर्व संस्कारों के कारण कुछ सफलता पा लेने पर उसी मार्ग को अपना वास्तविक मार्ग मान बैठते हैं जो कथमपि ठीक नहीं है ।
लेखक | डॉ रुद्रदेव त्रिपाठी-Dr Rudradev Tripathi |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 166 |
PDF साइज़ | 29.6 MB |
Category | Astrology |
Source/Credits | archive.org |
यंत्र शक्ति भाग 2 – Yantra Shakti Part 2 PDF
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