तंत्र शक्ति | Tantra Shakti PDF In Hindi

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तंत्र शक्ति – Tantra Shakti PDF Free Download

आवश्यकता और आकांक्षा – shiva shakti tantra

भगवान् कृष्ण ने गीता में अर्जुन को बोध देते हुए मानव की ईश्वर अथवा ईश्वरीय-सत्ता-सम्पन्न वस्तुओं के प्रति अभिरुचि के प्रमुख कारण दिखलाते हुए कहा है कि

चतुविधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

प्रार्तो जिज्ञासुरर्यार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। ७-१६ ।।

अर्थात् भरतवंशियों में श्रेष्ठ, हे अर्जुन !

१- आर्त संकट में पड़ा हुमा, २. जिज्ञासु – यथार्थ ज्ञान का इच्छुक, ३. अर्थार्थी सांसारिक सुखों का अभिलाषी तथा ४. ज्ञानी-ऐसे चार प्रकार के उत्तम कर्मवाले लोग मेरा स्मरण करते हैं।

यह कथन सभी के सम्बन्ध में लागू होता है।

इन चार कारणों में अन्तिम को छोड़कर शेष तीन तो ऐसे हैं कि इन से कोई बचा हुआ नहीं है। कुछ केवल पीड़ित हैं, कुछ केवल जिज्ञासु हैं और कुछ केवल अर्थार्थी हैं, जबकि अधिकांश व्यक्ति तोनों कारणों से ग्रस्त हैं |

एसे लोगों को आवश्यकताएँ कितनी अधिक होती हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। ये आवश्यकताएं मूलतः कष्टों से छुटकारा पाने, ज्ञातव्य को जानकर जिज्ञासा को शान्त करने तथा सांसारिक सुखों को प्राप्त करने के लिए निरन्तर बढ़ती रहती हैं।

अतः आचार्यों ने इनकी पूर्ति के लिए भी अनेक मार्ग दिखाए हैं जिनमें ‘तन्त्र-साधना’ भी एक है। तन्त्र शक्ति से प्राचीन आचार्यों ने अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त की थी और अन्य साधनाओं की अपेक्षा तन्त्र-साधना को सुलभ तथा सरल रूप में प्रस्तुत कर हमारे लिए वरदान ही सिद्ध किया था।

यही कारण है कि सुपठित, अल्पपठित और अपठित, शहरी तथा ग्रामीण, पुरुष एवं स्त्री सभी तन्त्र द्वारा अपनी-अपनी आवश्यकता की पूर्ति का प्रयत्न करते हैं और पूर्ण सफलता प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए तन्त्र को सभी आवश्यकताओं का पूरक माना जाता है।

जब हम दुःखों से मुक्त होते हैं, तो हमारी आकांक्षाएँ कुलाँचें भरने लगती हैं। इच्छाएँ सीमाएँ लांघकर असीम बनती जाती है। साथ ही हम यह भी चाहते हैं कि इन सबकी पूर्ति में अधिक श्रम न उठाना पड़े।

ठीक भी है, कोन ऐसा व्यक्ति होगा जो घोर परिश्रम से साध्य क्रिया की अपेक्षा सरलता से साध्य क्रिया की ओर प्रवृत्त न हो ? तन्त्र वस्तुतः एक ऐसी ही शक्ति है, जिसमें न अधिक कठिनाई है और न अधिक श्रम।

थोड़ी-सी विधि और थोड़े-से प्रयास से यदि सिद्धि प्राप्त हो सकती है तो वह तन्त्र से ही । अतः आवश्यकता और आकांक्षा की सिद्धि के लिए तन्त्र शक्ति का सहारा ही एक सर्वसुलभ साधन है।

तन्त्र : शब्दार्थ और परिभाषा

‘तन्त्र’ शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत हैं, उनमें से सिद्धान्त, शासन प्रबन्ध, व्यवहार, नियम, वेद की एक शाखा, शिव-शक्ति आदि को पूजा और अभिचार आदि का विधान करने वाला शास्त्र, आगम, कर्मकाण्ड-पद्धति और अनेक उद्देश्यों का पूरक उपाय अथवा युक्ति प्रस्तुत विषय के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण हैं।

वैसे यह शब्द ‘तन्’ और ‘त्र’ इन दो धातुओं से बना है, अतः ‘विस्तारपूर्वक तत्त्व को अपने अधीन करना’ – यह अर्थ व्याकरण की दृष्टि से स्पष्ट होता है, जबकि ‘तत्’ पद से प्रकृति और परमात्मा तथा ‘त्र’ से स्वाधीन बनाने के भाव को ध्यान में रखकर ‘तन्त्र’ का अर्थ-देवताओं के पूजा आदि उपकरणों से प्रकृति और परमेश्वर को अपने अनुकूल बनाना होता है।

साथ ही परमेश्वर की उपासना के लिए जो उपयोगी साधन हैं, वे भी ‘तन्त्र’ ही कहलाते हैं। इन्हीं सब अर्थों को ध्यान में रखकर शास्त्रों में तन्त्र की परिभाषा दी गई है

सर्वेऽर्या येन तन्यन्ते त्रायन्ते च भयाज्जनान् ।

इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते ||

अर्थात् – जिसके द्वारा सभी मन्त्रार्थो-अनुष्ठानों का विस्तार पूर्वक विचार ज्ञात हो तथा जिसके अनुसार कर्म करने पर लोगों की भय से रक्षा हो, वही ‘तन्त्र’ है । तन्त्र-शास्त्र के मर्मज्ञों का यही कथन है।

तन्त्र का दूसरा नाम ‘आगम’ है। अतः तन्त्र और आगम एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। वैसे आगम के बारे में यह प्रसिद्ध है कि

श्रागतं शिववक्त्रेभ्यो, गतं च गिरिजामुखे ।

मतं च वासुदेवस्य, तत आगम उच्यते ॥

तात्पर्य यह है कि जो शिवजी के मुखों से आया और पार्वतीजी के मुख में पहुँचा तथा भगवान् विष्णु ने अनुमोदित किया, वही आगम है।

इस प्रकार आगमों या तन्त्रों के प्रथम प्रवक्ता भगवान् शिव हैं तथा उसमें सम्मति देने वाले विष्णु हैं, जबकि पार्वतीजी उसका श्रवण कर, जीवों पर कृपा करके उपदेश देने वाली हैं। अतः भोग और मोक्ष के उपायों को बताने वाला शास्त्र ‘आगम’ अथवा ‘तन्त्र’ कहलाता है, यह स्पष्ट हैं।

लेखक Dr Rudradev Tripathi
भाषाHindi
एकूण पृष्ठे 180
Pdf साइज़38.1 MB
CategoryAstrology
Sourcesarchive.org

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