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भविष्य महापुराण भाग 1,2,3 – Bhavishya Purana PDF Free Download
भविष्य पुराण का सारांश(Summary)
‘भविष्यपुराण’ अठारह महापुराणोंकि अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण सात्विक पुराण है. इसमें इतने महत्त्वके विषय भी है, जिन्हें पढ़-सुनकर चमत्कृत होना पड़ता है। यद्यपि श्लोक संख्या में न्यूनाधिकता प्रतीत होती है।
भविष्यपुराणके अनुसार इसमें पचास हजार श्लोक होने चाहिये; जबकि वर्तमानमें अट्ठाईस सहस्र श्लोक ही इस पुराणमें उपलब्ध है। कुछ अन्य पुराणोके अनुसार इसकी श्लोक संख्या साढ़े चौदह सहस्र होनी चाहिये।
इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे विष्णुपुराणकी श्लोक संख्या विष्णुधर्मोत्तरपुराणको सम्मिलित करनेसे पूर्ण होती है, वैसे ही भविष्यपुराणमें भविष्योत्तरपुराण सम्मिलित कर लिया गया है, जो वर्तमानमें भविष्यपुराणका उत्तरपर्व है। इस पर्व में मुख्यरूपसे व्रत दान एवं उत्सवोंका ही वर्णन है।
वस्तुतः भविष्यपुराण सौर-प्रधान ग्रन्थ है। इसके अधिष्ठातृदेव भगवान् सूर्य है, वैसे भी सूर्यनारायण प्रत्यक्ष देवता हैं जो पचदेवोंमें परिगणित हैं और अपने शास्त्रोंके अनुसार पूर्णब्रह्मके रूपमें प्रतिष्ठित हैं।
द्विजमात्रके लिये प्रातः, मध्याह एवं सायंकालको संध्यामें सूर्यदेवको अर्घ्य प्रदान करना अनिवार्य है, इसके अतिरिक्त स्त्री तथा अन्य आश्रमोंक लिये भी नियमित सूर्यार्घ्य देनेकी विधि बतलायी गयी है।
आधिभौतिक और आधिदैविक रोग-शोक, संताप आदि सांसारिक दुःखोकी निवृत्ति भी सूर्योपासनासे सद्यः होती है। प्रायः पुराणोंमें शैव और वैष्णवपुराण ही अधिक प्राप्त होते हैं, जिनमें शिव और विष्णुकी महिमाका विशेष वर्णन मिलता है, परंतु भगवान् सूर्यदेवकी महिमाका विस्तृत वर्णन इसी पुराण में उपलब्ध है।
यहाँ भगवान् सूर्यनारायणको जगत्स्रष्टा, जगत्पालक एवं जगत्संहारक पूर्णब्रह्म परमात्माके रूपमें प्रतिष्ठित किया गया है। सूर्यके महनीय स्वरूपके साथ-साथ उनके परिवार, उनकी अद्भुत कथाओं तथा उनकी उपासना पद्धतिका वर्णन भी यहाँ उपलब्ध है।
उनका प्रिय पुष्प क्या है, उनकी पूजाविधि क्या है, उनके आयुध- व्योमके लक्षण तथा उनका माहात्म्य, सूर्य नमस्कार और सूर्य-प्रदक्षिणाकी विधि और उसके फल, सूर्यको दीप-दानकी विधि और महिमा, इसके साथ ही सौरधर्म एवं दीक्षाकी विधि आदिका महत्त्वपूर्ण वर्णन हुआ है।
इसके साथ ही सूर्यके विराट् स्वरूपका वर्णन, द्वादश मूर्तियोंका वर्णन. सूर्यावतार तथा भगवान् सूर्यकी रथयात्रा आदिका विशिष्ट प्रतिपादन हुआ है।
सूर्यको उपासनामें व्रतोकी विस्तृत चर्चा मिलती है। सूर्यदेवकी ‘प्रिय तिथि है ‘सप्तमी’। अतः विभिन्न फलश्रुतियोंके साथ सप्तमी तिथिके अनेक व्रतोंका और उनके उद्यापनोका यहाँ विस्तारसे वर्णन हुआ है।
अनेक सौर तीथेकि भी वर्णन मिलते है। सूर्योपासनामें भावशुद्धिकी आवश्यकतापर विशेष बल दिया गया है। यह इसकी मुख्य बात है।
इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, गणेश, कार्तिकेय तथा अनि आदि देवोंका भी वर्णन आया है। विभिन्न तिथियों और नक्षत्रोंके अधिष्ठातृ-देवताओं तथा उनकी पूजाके फलका भी वर्णन मिलता है।
इसके साथ ही ब्राह्मपर्वमें ब्रह्मचारिधर्मका निरूपण, गृहस्थधर्मका निरूपण, माता-पिता तथा अन्य गुरुजनोंकी महिमाका वर्णन, उनको अभिवादन करनेकी विधि, उपनयन, विवाह आदि संस्कारोंका वर्णन, स्त्री-पुरुषोंके सामुद्रिक शुभाशुभ लक्षण, स्त्रियोंके कर्तव्य, धर्म, सदाचार और उत्तम व्यवहारकी बातें, स्त्री-पुरुषोंके पारस्परिक व्यवहार, पञ्चमहायज्ञोंका वर्णन, बलिवैश्वदेव, अतिथिसत्कार, श्राद्धोंके विविध भेद, मातृ-पितृ-श्राद्ध आदि उपादेव विषयोंपर विशेषरूपसे विवेचन हुआ है।
इस पर्वमें नागपञ्चमी-व्रतकी कथाका भी उल्लेख मिलता है, जिसके साथ नागो की उत्पत्ति, सर्पोके लक्षण, स्वरूप और विभिन्न जातियाँ, सर्पकि काटनेके लक्षण, उनके विषका वेग और उसकी चिकित्सा आदिका विशिष्ट वर्णन यहाँ उपलब्ध है।
इस पर्वकी विशेषता यह है कि इसमें व्यक्तिके उत्तम आचरणको ही विशेष प्रमुखता दी गयी है।
कोई भी व्यक्ति कितना भी विद्वान्, वेदाध्यायी, संस्कारी तथा उत्तम जातिका क्यों न हो, यदि उसके आचरण श्रेष्ठ, उत्तम नहीं हैं तो वह श्रेष्ठ पुरुष नहीं कहा जा सकता। लोकमें श्रेष्ठ और उत्तम पुरुष वे ही हैं जो सदाचारी और सत्पथगामी हैं।
भविष्यपुराणमें ब्राह्मपर्वके बाद मध्यमपर्वका प्रारम्भ होता है। जिसमें सृष्टि तथा सात ऊर्ध्व एवं सात पाताल लोकोंका वर्णन हुआ है।
ज्योतिचक्र तथा भूगोलके वर्णन भी मिलते हैं। इस पर्व में नरकगामी मनुष्योंके २६ दोष बताये गये हैं, जिन्हें त्यागकर शुद्धतापूर्वक मनुष्यको इस संसारमें रहना चाहिये।
पुराणोंके श्रवणकी विधि तथा पुराण-वाचककी महिमाका वर्णन भी यहाँ प्राप्त होता है। पुराणोको श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सुननेसे ब्रह्महत्या आदि अनेक पापोसे मुक्ति मिलती है।
जो प्रातः, रात्रि तथा सायं पवित्र होकर पुराणोंका श्रवण करता है, उसपर ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रसन्न हो जाते हैं। इस पर्व में इष्टापूर्तकर्मका निरूपण अत्यन्त समारोहके साथ किया गया है।
जो कर्म ज्ञानसाध्य है तथा निष्कामभावपूर्वक किये गये कर्म और स्वाभाविक रूपसे अनुरागाभक्तिके रूपमें किये गये हरिस्मरण आदि श्रेष्ठ कर्म अन्तर्वेदी कमकि अन्तर्गत आते हैं, देवताकी स्थापना और उनकी पूजा, कुआं, पोखरा, तालाब, बावली आदि खुदवाना, वृक्षारोपण, देवालय, धर्मशाला, उद्यान आदि लगवाना तथा गुरुजनोंकी सेवा और उनको संतुष्ट करना ये सब बहिर्वेदी (पूर्त) कर्म हैं।
देवालयोंके निर्माणको विधि, देवताओंकी प्रतिमाओंके लक्षण और उनकी स्थापना, प्रतिष्ठाकी कर्तव्य-विधि, देवताओंकी पूजापद्धति, उनके ध्यान और मन्त्र, मन्त्रोंके ऋषि और छन्द-इन सर्वोपर पर्याप्त विवेचन किया गया है।
पाषाण, काठ, मृत्तिका, ताम्र, रत्न एवं अन्य श्रेष्ठ धातुओंसे बनी उत्तम लक्षणोंसे युक्त प्रतिमाका पूजन करना चाहिये। घरमें प्रायः आठ अंगुलतक ऊँची मूर्तिका पूजन करना श्रेयस्कर माना गया है।
इसके साथ ही तालाब, पुष्करिणी, वापी तथा भवन आदिकी निर्माण पद्धति, गृहवास्तु -प्रतिष्ठाकी विधि, गृहवास्तुमें किन देवताओंकी पूजा की जाय, इत्यादि विषयोंपर भी प्रकाश डाला गया है।
वृक्षारोपण, विभिन्न प्रकारके वृक्षोंकी प्रतिष्ठाका विधान तथा गोचरभूमिकी प्रतिष्ठा-सम्बन्धी चर्चाएँ मिलती हैं।
जो व्यक्ति छाया, फूल तथा फल देनेवाले वृक्षोंका रोपण करता है या मार्गमें तथा देवालयमें वृक्षोंको लगाता है, वह अपने पितरोंको बड़े-से-बड़े पापोंसे तारता है और रोपणकर्ता इस मनुष्यलोकमें महती कीर्ति तथा शुभ परिणामको प्राप्त करता है।
जिसे पुत्र नहीं है, उसके लिये वृक्ष ही पुत्र है| वृक्षारोपणकर्ताक. लौकिक-पारलौकिक कर्म वृक्ष ही करते रहते है तथा उसे उत्तम लोक प्रदान करते हैं।
यदि कोई अश्वत्थ वृक्षका आरोपण करता है तो वही उसके लिये एक लाख पुत्रोंसे भी बढ़कर है। अशोक वृक्ष लगानेसे कभी शोक नहीं होता।
बिल्व वृक्ष दीर्घ आयुष्य प्रदान करता है। इसी प्रकार अन्य वृक्षोंके रोपणकी विभिन्न फलश्रुतियाँ आयी हैं। सभी माङ्गलिक कार्य निर्वित्रतापूर्वक सम्पन्न हो जायें तथा शान्ति भङ्ग न हो इसके लिये ग्रह शान्ति और शान्तिप्रद अनुष्ठानोंका भी इसमें वर्णन मिलता है।
भविष्यपुराणके इस पर्व में कर्मकाण्डका भी विशद वर्णन प्राप्त होता है।
विविध यशोंका विधान, कुण्ड-निर्माणकी योजना, भूमि-पूजन, अग्रिसंस्थापन एवं पूजन, यज्ञादि कर्मो के मण्डल – निर्माणका विधान, कुशकण्डिका-विधि, होमद्रव्योंका वर्णन, यज्ञपात्रोका स्वरूप और पुर्णाहुतिकी विधि, यज्ञादिकर्ममें दक्षिणाका माहात्म्य और कलश-स्थापन आदि विधि-विधानोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
शास्त्रविहित यज्ञादि कार्य दक्षिणारहित एवं परिमाणविहीन कभी नहीं करना चाहिये। ऐसा यज्ञ कभी सफल नहीं होता।
लेखक | Maharshi Vedvyas |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 853 |
Pdf साइज़ | 44.2 MB |
Category | Religious |
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भविष्य पुराण की गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित दूसरी किताब
इस किताब में सम्पूर्ण पुराण एक साथ दिया हुआ है, जो उपरी किताब से अलग तरीके से प्रदर्शित की हुई है. जो 24 MB की साइज में 440 पन्ने में है.
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why there 10 and 11 page is missing from khand 3
is this manupulated?
No, This is Not Manipulated, That is a Mistake by the original book uploader.
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