सुश्रुत संहिता | Sushrita Samhita PDF In Hindi

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सुश्रुत संहिता – Sushrita Sanhita PDF Free Download

सुश्रुत संहिता

गोचर होते हैं। योनि का स्वरूप नलिकाकृति है जो भग तथा गर्भाशय का संयोजन करती है।

योनिसीमा-इसकी पूर्व भित्ति २-३ इंच लम्बी तथा ग्रीवा के अधोमध्य तृतीयांश से सम्बन्धित रहती है और पश्चिमभित्ति ३-४ इन्च लम्बी तथा ग्रीवा से उसके मध्योर्ध्व तृतीयांश के सन्धि स्थल पर मिलती है।

योनि का पूर्वभाग मूत्रप्सेक (Urethra ) तथा मूत्राशय ( Bladder ) के आधार से एवं पश्चिम भाग मूल पिण्डिका ( Perineal body ), मलाशय से सम्बन्धित है।

दोनों पाश्चों में पायुधारिणी (Levator ani ) नामक दो पेशियां रहती हैं। रचना की दृष्टि से इसके चार स्तर माने गये हैं-

(१) अन्तस्तर (Inner Mucous coat ), (२) उपान्तस्तर (Sub mueus coat), (३) मध्यस्तर ( Muscular layer ), (१) बहिस्तर (Oute most layer ) ।

अन्तस्तर-इसे कलामयस्तर भी कहते हैं। इसका नाव लसीका महेश होता है तथा स्राव की (४) वस्त्र- यह सौत्रिक तंतुओं से बना है तथा इसमें वात तन्तु ( Nerves ) और रक्त-प्रणालियां व सिराजाल होते हैं ।

वास्तव में प्राचीनों ने जो योनि के तृतीय आवर्त में गर्भ शय्या का प्रतिष्ठान मान करें उसी का अवयव मान लिया है किन्तु आधुनिकों ने गर्भशय्या (Uterus) को एक आन्तरिक स्वतन्त्र प्रजनन अङ्ग माना है ।

इसके सिवाय आंतरिक प्रजनन अंगों में बीजवह स्रोत ( Fallopian tubes) और बीज ग्रन्थि (Overy ) का समावेश हो कर ये आन्तरिक प्रजननाङ्ग चार माने गये हैं।

बाह्य प्रजननाङ्ग या जननेन्द्रिय ( Extra nal genitals) ये संख्या में बारह होते हैं-(१) भगपीठ (Mons pubis), (२) बृहद भगोष्ठ ( Labia majora ), (३) लघु भगोष्ट ( Labia minora), (४) भगालिन्द (Vestibule), () भगशिश्निका ( Clitoris), (६) मूत्रप्रसेकद्वार ( Exter nal orifice of the urethra), (७) बृहद्भगालिन्दीय ग्रन्थियां ( Greater vestibular glands )|

योनिरोग कारण-जो बीस प्रकार के योनिरोग हैं वे स्त्रियों के मिथ्या आहार तथा आहार के सेवन से आर्तव (मासिक धर्म) की दुष्टि से एवं माता-पिता के आरम्भक बीज-दोष से और दैव (पूर्व जन्मकृत अधर्म = पापाचार )

से उत्पन्न होते हैं अब आगे उन बीस प्रकार के रोगों का नाम और लक्षण आदि पृथक्-पृथक् करके कहता हूं उन्हें सुनो ॥५॥

विमर्शः-तन्त्रान्तर में मिथ्या आहार-विहार के द्वारा दुष्ट हुये वातादि दोषों से तत्व के दूषित होने से, बीज दोप से एवं देव से भग में रोगों का उत्पन्न होना माना गया है मिथ्याहारविहाराभ्यां दुष्टोपैः प्रदूषितात् ।

आर्त्तवाद् बीजतश्चापि दैवादा स्युर्भगे गदाः॥ उदावर्त्त तथा बन्ध्या विप्लुत च परिप्लुता । वातला चेति वातोत्थाः, पित्तोत्था रुधिरक्षरा ॥६॥

श्रीमद्भांगवत ९ स्कन्ध, अ० १३ की कथा में इन्हें राजा इक्वाकु का पुत्र कहा गया है ।

एक समय इच्चाकुपुत्र महाराज निमि ने यज्ञार्थ वशिष्ट जी को ऋत्विज नियत करना चाहा किन्तु उन्होंने अपने को प्रथम ही इन्द्रह्दारा वरण कर लिये जाने से पुनः छौटने तक प्रतीक्षा करने को कहा ।

वशिष्ठजी के आने में अधिक विलम्ब होता जान अन्य ऋशति्जों द्वारा यज्ञारम्भ कर दिया । कुछ काल बाद लौटने .

पर वशिष्ठजी ने यज्ञारम्भ कर देने पर निमि को नष्ट होने का शाप दे दिया इस पर निमि ने भी वशिष्ठ को नष्ट होने का शाप दे दिया ।

ऋत्विजों ने निमि के सतदेह को सड़े न अतएव सुगन्धित पदार्थों में रख दिया फिर यज्ञपूर्णता के समय आये हुए देवताओं के प्रभाव से निमि पुनर्जीवित हो गये किन्तु निमि ने देह धारण कर रहना पसन्द नहीं किया अतः देवों ने उन्हें विना देह के ही सब मनुष्यों के पलकों पर रहने का आदेश दे दिया ।

इसी कारण निमेष शब्द भी निमिपरक माना गया है क्योंकि पलकों के खोलने व बन्द करने को “निमेष! कहते हैं तथा उसी क्रिया के समय निमि का वहां निवास लक्षित होता है ।

रामायण में भी जानकीजी का निर्निमेष नेत्रों से राम को देखते समय तुल्सीदासजी ने उत्प्रेज्ञा की है कि मानों जानकीजी के पलक-निवासी निमि ने रामचन्द्रजी को अपनी वंशपुत्री जानकी द्वारा देखने में लज्मा का अनुभव कर कुछ काल के लिये वहां से हट से गये अतएव जानकीजी राम को श्रेमनिमम्न हो कर निर्निमेष नेत्रों से देख सकीं–‘भरी विकोचन चारु अचञ्जल | भनहु सकुचि.

निमि तजेउ हृगगंचछ ५! निमि ही को जनक भी कहते हैं क्योंकि उस वक्त उन ऋषियों ने निमि के झूत’ देह का मन्‍्थन किया-जिससे एक बालक उत्पन्न हुआ वह जन्म से ‘जनक’, विदेह से उत्पन्न होने के कारण “बेदेह” और मन्थन कर के उत्पन्न होने से ‘मिथिल’ कहा गया जिसने की “मिथिलापुरी’ बनाई |

डल्हण ने भी निमि के परिचयार्थ ऐसी ही अन्य कथा लिखी

लेखक अम्बिका दत्त शास्त्री – Ambika Datt Shastri
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 554
PDF साइज़ 161.3 MB
Category आयुर्वेद(Ayurveda)

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