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मानव शरीर रचना विज्ञान – Manav Sharir Rachana Vigyan Pdf Free Download
मानव शरीर रचना विज्ञान
कोपाणु की परीक्षा प्रायः उसको रङ्गों से रंगने के पश्चात् की जाती है जिससे अद्यसार गसायनिक वस्तुओं से प्रभावित हो जाता है ।
इस कारण उसके आकार का परिवर्तित हो जाना अत्यन्त सम्भव माडम होता है। ऐसे कोपा के उपचार में जालाकार रचना दिखाई देती है।
तरन सरमाशी स्वच्छ 1. पदार्थ के कणों के चारों ओर खित सघन पदार्थ में तन्तुओं का बाल सा फैसा हुआ दिखाई देता है। इस जालमय भाग को जालकसार और भीतर के समांशी भाग को स्वच्छसार’ कहा जाता है।
किन्तु यह कहना कठिन है कि साधारण कोपाणुसार की, जिस पर रासायनिक रङ्गों की क्रिया नहीं हुई. है, ऐसी ही रचना होती है। सम्भावना इसके विपरीत मालूम होती है ।
अन्चेपण-कर्ताओं ने इसकी रचना के सम्बन्ध में यह महत्वपूर्ण खोज की है कि श्राद्यसार की रचना परिवर्तनशील है।
यह भिन्न- भिन्न अवस्थाबोंमें परिवर्तित हो सकती हैं इसी कारण भिन्न-भिन्न लेखको के लेखों में इस सम्बन्ध में इतनी मित्रता पाई जाती है।
किन्तु यद्द सत् इस नात पर एकमत हैं कि मानुसार के दो भाग होते हैं- -एक सक्रिय और दूसरा निष्क्रिय | यद्यपि दोनों भाग जीवित हैं तो भी आयसार की क्रियाओ-जैसे संकोचत्य, उत्तेजितत्व इत्यादि-का कारण सक्रिय भाग है।
अधिकतर परिपक्व कोषाणुओं में जालाकार रचना पाई जाती है । कुछ विद्वानों ने विना रंगे हुए अथमा रासायनिक क्रियायों से प्रभावित कोपागुयों में भी जालाफार रचना का वर्णन किया है।
इस कारण रचना के सम्बन्ध में इसी मत के अधिक अनुयायी हैं।
आद्यसार का रासायनिक संघटन-यह वस्तु जीवित अवस्था में परिवर्तनशील पदार्थों की बनी होती है जिनका ठीक-ठीक संघटन जानना अत्यन्त कठिन है।
यह बस्तु इतनी कोमल होता है कि रासायनिक वस्तुओं की क्रिया होते ही उसकी मृत्यु हो जाती है और उसके श्रवरयों का रूप बदल जाता है ।
शरौर-स्चना-विज्ञान आधुनिक चिकित्ा-प्रणाली को एक अत्यन्त मह्तपूर्ण शाला है।
वास्तव में रोग-चिकिता का आधार ही अज्ञों की रचना तथा उनके कार्य का पूर्ण ज्ञान है।
रचना तथा कार्य से अमिश न होने पर चिकित्सा में निषुणता नहीं श्रा सकती। विशेष कर शल्य-चिक्रिसा करनेवाले शह्यकोविदों के लिए.
तो शरीर-रचना का अत्यन्त गम्भीर और यूद्ठम ज्ञान अनिवार्य है। शरीर का प्रत्येक अछ्छ तथा रचनाएँ, धमनी, शिरा, नाड़ी इत्यादि की स्थिति तथा उनका श्रापस में स्थिति के अनुसार उख्बस्ध तथा अन्य सप्रीपकर्ती श्रद्ों के साथ सम्रन्ध, इन सबका पूर्ण परिचय हुए भिना शत्र कर्म नहीं किये जा सकते ।
बृहद् शल्य-कम में ऐसी अनेक सचनाएँ, घमनी, नाढ़ी तथा अन्य अंग बीच में आ जाते हैं कि वह निर्दिष्ट स्थान तक पहुँचने में ब्राधित होते हैं ।
इन सब्र रचमाश्रों तथा अंगों को इस प्रकार बचाना तथा उनकी व्यवस्था करनी कि उनको कोई क्षति भी ने पहुँचे तथा इच्छित स्थान तक पहुँचकर शब्य, अबुंद तथा रुूण अंग का छेटन भी किया जा सके इसीकों शत्म कर्म कहते हैं तथा शल्य कोव्िद वी सफलता इसी पर निर्भर होती है।
स्वनाओं तथा अंगें को जितनी कम ज्ञति पहुँचेगी शत्र-कर्म में उतनी ही सफलता होगी |
भायुवंद मैं शरीसस्थान को बड़ा महत्व दिया गया है। प्रत्येक प्राचीन संहिता मैं इसका विशेष स्थान है।
ओर यथपि अनेक तंहिताएं लुप्त हो गई हैं तथा जो मिलती हैं उनमें ते कुछ अ्पूर्ण है ओर शेष में श्रशानवश असक्भत श्लोकी का समावेश हो गया है तो मी उनके श्रव्यथन से स्पध्तया विदित होता है कि कुछ संहिताएँ केवल शारीर-शाल्न ही से सम्बन्ध रखती थीं।
उनमें शरीर के प्रत्येक श्रद् की रचना का सूद्मतर विवेचन किया गया था तथा शबच्छेद की विधि का पूर्ण वर्णन था।
प्रचीन तम्मय में शल्य-कोविदों तथा शत्र-चिकित्सकों की श्रेणी ही (थक थी। श्र उन छोगों को इन शारीर समत्रस्धी संहिताओं का अध्ययन आवश्यक था |
नो आयुर्वेदीय संहिताएँ, इस समय उपलब्ध है उनमें चरक ओर सुश्रत ही प्राचीनतम और महत्व पूर्ण मानी जाती हैं। इनमें मी शारीर के समरन्ध में सुश्रुत ही प्रमाणिक अन्य है।
श्न-चिकित्सा तथा शारीर का विशेष विवेचन इसी उंहिता में किया गया है। किन्तु उसमें भी बहुत से ऐसे अ्रसड्भत पाठ मिलते हैं जो शबच्छेद करने पर यथा नहीं प्रतीत होते ।
उनमें जो वर्णन है, मानव शरीर में उतके अनुसार ने अज्ञों की रचना ही पाई जाती है और न प्रयोगों द्वारा उनका वह कार्य ही सिद्ध होता है। कहीँ-कहीं तो पाठ अंदयन्त दृषित हो गया है।
इस सबका कारण यह हुआ है कि इन संहिताओं का पंशोधन तथ। संस्करण उन चक्तियों के द्वारा होता रहा है जो स्वयं इस विषय के विश्व नहीं थे ओर शारीर-शास्र का जिनको परिचय नहीं था| अतएव जहाँ प्र भी जो पाठ उनको समझ में नहीं आया वहीं पर उन्होंने पाठ का रूपान्तर कर दिया ओर अपनी श्रोर से कुछ शलोकों का समावेश कर दिया।
यही क्रम शताब्दियों तक चलता रहा। परिणाम कह हुआ कि पार का झुप बिल्कुल बदल गया और जो संगत था वह अरसज्ूत हो गया.
लेखक | मुकुन्द स्वरुप वर्मा-Mukund Swaroop Varma |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 283 |
Pdf साइज़ | 15.9 MB |
Category | आयुर्वेद(Ayurveda) |
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