कबीर के दोहे – Kabirdas Ke Dohe Book Pdf Free Download

विभिन्न विषयों पर कबीर के दोहे
पतिव्रता का अंग
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर |
तेरा तुझको सौंपता क्या लागै है मोर | | 1 | |
भावार्थ मेरे साई, मुझमें मेरा तो कुछ भी नहीं, जो कुछ भी है, वह सब तेरा ही है |
तव, तेरी ही वस्तु तुझे सौपते मेरा क्या लगता है, क्या आपत्ति हो सकती है मुझे ? ‘कबीर’ रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनूं रमैया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ ||2||
भावार्थ- कवीर कहते हैं – आँखों में काजल कैसे लगाया जाय, –
जबकि उनमें सिन्दूर की जैसी रेख उभर आयी है ? मेरा रमैया नैनों में रम गया है,
उनमें अब किसी और को बसा लेने की ठौर नहीं रही।
[ सिन्दूर की रेख से आशय है विरह-वेदना से रोते-रोते आँखें लाल हो गयी हैं । ] ‘कबीर’ एक न जाण्यां तो बहु जांण्या क्या होइ ।
रस का अंग
‘कबीर’ भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ ।
सिर सौपे सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाई || 1 ||
भावार्थ- कबीर कहते हैं -कलाल की भट्ठी पर बहुत सारे आकर बैठ गये हैं, पर इस मदिरा को एक वही पी सकेगा, जो अपना सिर कलाल को खुशी-खुशी सौंप देगा, नहीं तो पीना हो नहीं सकेगा ।
[कलाल है सदगुरु, मदिरा है प्रभु का प्रेम-रस और सिर है अहंकार ।]
‘कबीर’ हरि-रस यौ पिया, बाकी रही न थाकि ।
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढई चाकि ||2||
भावार्थ कवीर कहते हैं
हरि का प्रेम-रस ऐसा छककर पी लिया कि कोई और रस पीना बाकी नहीं रहा ।
कुम्हार का बनाया जो घडा पक गया, वह दोबारा उसके चाक पर नहीं चढता |
[ मतलब यह कि सिद्ध हो जाने पर साधक पार कर जाता है जन्म और मरण के चक्र को। ]
॥ गुरु के विषय में दोहे ॥
गुरु सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान । बहुतक भोदूँ बहि गये, राखि जीव अभिमान ॥ 432 ॥
गुरु को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम । कीट न जाने भृगं को, गुरु करले आप समान ॥ 433 ॥
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय । जनम जनम का मोरचा, पल में डारे धोय ॥ 434 ॥
गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त । वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त ॥ 435 ॥
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय । कहैं कबीर सो सन्त हैं, आवागमन नशाय ॥ 436 ||
जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर । एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥
गुरु समान दाता नहीं. याचक सीष समान । तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान ॥ 438 ॥
गुरु कुम्हार सिष कुंभ है. गढ़ि-गढ़ि काढै खोट । अन्तर हाथ सहार दै. बाहर बाह्रै चोट ॥ 439 ॥
॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥
शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध । कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥
हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय । ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ||
ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक । जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥
शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ||
स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय । चतुराई रीझै नहीं. रहिये मन के माय || 512 ||
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि । बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ||
सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय । जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514
देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ||
॥ भिक्ति के विषय मे दोहे ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय । माटी लदै कम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥
कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी ककरी होय । गली गली भूँकत फिरै, ट्रक न डारै कोय ॥ 517 ॥
जो कामिनि परदे रहे, सुनै न गुरुगुण बात । सो तो होगी ककरी, फिरै उधारे गात ॥ 518 ||
॥ भीख के विषय मे दोहे ॥
उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष । कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ||
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख । जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं । तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ||
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ||
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह | यह तीनों तब ही गये. जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ||
सहत मिलै सो दूध है. माँगि मिलै सा पानि । कहैं कबीर वह रक्त है, जानें एंचातानि ॥ 663 ॥
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ||
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष । उदर समाता माँगि ले. निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर || 661 ||
॥ काल के विषय मे दोहे ॥
जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय । सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय । जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥ 854 ॥
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद। जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ||
काल जीव को ग्रासई, बहुत कयो समुझाय । कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥
निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय । कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पतियाय ॥ 857 ॥
जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय । जो चुने सो दहि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ॥ 858 |
कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय । जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ||
जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त । दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ||
उपदेश
देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह । बहुरि न देही पाइये, अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥
सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक । कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 899॥
कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय। साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय ॥ 900 ||
हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार । श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार || 901॥
या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत । गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत ॥ 902 ||
कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर । खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर || 903 ||
सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान । निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान ॥ 904 ॥
घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदें बरसें, झर लाग गए। हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये ॥ 905 ॥
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा। जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा ॥ 906 ॥
लेखक | कबीर-Kabir |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 91 |
Pdf साइज़ | 1 MB |
Category | Poetry |
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