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कबीर ग्रंथावली – Kabir Granthawali Book PDF Free Download
कबीर ग्रंथावली
प्रस्तुत प्रयास में उपर्युक्त साधनों का ही प्रवलंबन लिया गया है। अत्यन्त सतर्कता से निर्धारित समस्त ‘निश्चेष्ट’ और ‘सचेष्ट’ पाठ-विकृतियों की सहायता से विभिन्न प्रतियों का पाठ-सम्बन्ध निर्धारित किया गया है
और तदनन्तर केवल उन्हीं अंशों को कबीर वाणी के रूप में संकलित किया गया है जो किन्हीं दो या अधिक ऐसी प्रतियों में मिलती हैं जो परस्पर किसो भी प्रकार के संकीणं-सम्बन्ध से संबद्ध नहीं हैं और उन्हीं का ठीक-ठीक पाठ ।
निर्धारण भी इसी सिद्धांत पर किया गया है । किसी रचना की विभिन्न प्रतियों का अवलम्ब लेकर काल के स्थूल पावराण को भेद कर उसके मूल रूप तक पहुँचने का यही एक मात्र अमोघ साधन है ।
संतोष का विषय है कि इस प्रकार भी जो वाणी हमें प्राप्त हुई है वह आकार में कम नहीं है । दो सौ पद ( या शब्द), बीस रमेनियां, एक चौंतीसी रमैनी तथा सात सौ चौवालीस साखियाँ प्रामाणिक रूप से कबीर को सिद्ध होती हैं।
वास्तविक कबीर के अध्ययन के लिए यदि हम किसी छोटी सो छोटी संख्या के सम्बन्ध में भी यह कह सकते हैं कि वह प्रामाणिक है तो उतना भी पर्याप्त होता ।
किन्तु जब उनकी रचनाओं की इतनी बड़ी संख्या निश्चित रूप से प्रामाणिक मानी जाने योग्य मिल रही है तो हमें और भी अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए ।
प्रस्तुत प्रबंध में दो खंड हैं । प्रथम खंड में, जो प्रस्तुत पुस्तक में भूमिका’ के रूप में दिया गया है, सर्वप्रथम नाना संस्थानों तथा व्यक्तिगत संग्रहों में सुरक्षित हस्तलिखित प्रतियों
तथा विभिन्न रूपांतरों में प्राप्त मुद्रित ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके द्वारा प्रस्तुत सामग्री का विश्लेषण कर कबीर दोहे की तथाकथित रचनामों से प्रमुख ग्राधारभूत प्रति हरि संगति सीमल आया, मिळी मेह की वाप।
निस बासुरि सुख निष्य सका, जब चैतरि प्रगट्या बाप ॥३०॥ सन भीतरि मन मानियां, बाहरि कहा न जाइ। बाला ते फिरि जल भया, बुझी बसंती खाई॥३१ ॥
तत पावा सन बीसमा, अब यनि धरिया ध्यान । कवोर दिन स्यापति भया, पाया फत संध्य । सार्थ द्वारा मिटि गया, अप दीरक देख्या माहि ॥ ३५ ॥ कारणे में हंसता सभामुख मिलिया कोई। सेई फिरि आपणा मया, जारूं कहता और ।। ३ ।।
मानसरोवर सुभर जल हंसा के करा हिं । मुकताहल मुकता चुन, अाई अनत न जादि ॥ ३६ नौच विहूंगा देरा, देख चिहूणां देव । बार तदा बिलंचिया, करे पनप की सेव । ११ ॥ तपनि गई सौतन भया, जब सुनि किया अतनान ॥ ३२ ॥
जिनि पाया तिनि सू गह गहा, रसना खागी व्वादि । रतन निराजा पाईया, जगत दंदैया बादि । १३ ॥ सायर माहि ढंढो लता, करि पड़ि गया इश्व ।। ३४ ॥ जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि में नाहि । धन मैली नीव उला, लागि न सकी पाइ ३६ ॥
लेखक | श्याम सुंदरदास-Shyam Sundardas |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 337 |
Pdf साइज़ | 30.2 MB |
Category | काव्य(Poetry) |
डॉ माता प्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित कबीर ग्रंथावली
पारसनाथ तिवारी द्वारा सम्पादित कबीर ग्रंथावली
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