घेरंड संहिता भाषानुवाद सहित – Gheranda Samhita Book/Pustak PDF Free Download

पुस्तक का एक मशीनी अंश
भारतवर्ष में योग-विद्या का महत्व बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। आर्य-जाति के इतिहास में, प्रधान रूप में योग का विषय-विवेचन किया गया है।
मनुष्य-जीवन के अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष के निरूपण में सर्वत्र ही योग की प्रधानता है। योग का प्रयोग लौकिक एवं अलौकिक भेदं से दो प्रकार का माना गया है। लौकिक कार्यों की सिद्धि भी बिना मन के अवधान के नहीं होती।
काकीमुद्रां शोधधित्या पूरयेदुदरं महत् । धारचेदर्धयामं तु चालयेदघोवत्त्षना। एषाधौतिः परा गोष्या प्रकाश्या कदाचन २२॥
भावार्थ – काकचंचु मुद्रा बना कर, वायु को पीकर पेट में भरना चाहिए। उस भरे हुए वायु को डेढ़ घंटे रोक कर अधोमार्ग से चला कर निकाल देने को बहिष्कृत भौति कहते हैं। यह धौति परम गोपनीय है
प्रक्षालनम् नाभिमानो जले स्थित्वा शक्तिनाडी विसर्जयेत्। कराभ्यां क्षालयेन्नाडी यावन्मलविसर्जनम्। तावत् प्रक्षाल्य नाड़ी च उदरे वेशयेत पुनः ॥२३॥
इदं प्रक्षालनं गोप्यं देवानामपि दुर्लभम्। केवलं धौतिमात्रेण देवदेहो भवेद् धुवम् । २४॥
भावार्थ – नाभिपर्यन्त जल में खड़े होकर शक्ति नाड़ी (त्रिवली) को बाहर करके, उसे धोकर पूर्णरीति से साफ कर, फिर हाथों से घी लगाकर उन नाड़ियों को पुनः उदर में रख ले।
यह प्रक्षालन देवताओं को भी दूर्लभ है । इस धीति के द्वारा सर्वथा देवतुल्य शरीर हो जाता है यह निश्चय है तत्वों में इस विषय पर कहा गया है ‘
स चावाय झालनं च कुर्यात्राड्यादिशोधने। नेग्नीयोगमार्गेण नाडीक्षालन तत्परः।।
भवत्येव महाकालो राजराजेश्वरी कथा। केवलं प्राणवायोश्च धारणात्क्षालनं भवेत्॥ विनाक्षालनयोगेन देह शुद्धिर्वज्ञायते। झालनं नाडिकादीनां श्लेष्मपित्त निवारणाम्॥
अर्थात्- योगी को नाड़ी का शोधन और न करना चाहिए। जो नेग्नीरयी से नाड़ियों का क्षालन करते है : वे महाकाल और राजराजेश्वर के तुल्य हो जए हैं।
केवल प्राण के धारण से क्षालन योग होता है। सालन के बिना [देहरुच्धि नहई होती। कफ-पित्तादि दोष भी इससे नष्ट हो जाते हैं।
यामार्थ धारणाशक्ति चावन्नसाधयेनरः। बहिष्फकृतमहद्धीतिस्तावच्चैव न जायते ।२५।
भावार्थ – साधक जब तक ठेव घंटे तक पेट में वायु रोकने की सामध्य्य । प्राप्त कर ले तब तक इस बहिष्कृत धौति को न करे
दन्तधौतिः तन्तमूलं जिह्वापूल रन्धं च कर्णयुग्मयोः। कपालगन्ध पञ्चैते दन्तधीति विधीयते ।२६॥
भावार्थ – इन्तमूलधीति, जिद्वामूलधीति, कर्णरत्ध्रधीति, और कपालरन्प्रथीति, ये पाँच प्रकार की दन्तरधीति हैं 26 दन्तमूलधौतिः खादिरेण रसेनाथ मृदार्थव विशुद्धया। माजयेददन्तमूलं च यावत् किल्विषमाहरेत् ।२०।
लेखक | स्वामीजी महाराज- Swamiji Maharaj |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 117 |
Pdf साइज़ | 14.9 MB |
Category | धार्मिक(Religious) |
Sources | archive.org |
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