श्री कबीर साहिब | Kabir Sahib PDF In Hindi

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श्री कबीर साहिब – Shri Kabir Sahib PDF Free Download

कबीर सागर सम्पूर्ण 11 भाग

जोकोई आय जान यज्ञशाला। सव कह पोषण कीन्ह भुवाखा ॥ पहुँचे अवधि सुदिन दिन आये। राजा नगर मई ढोल बजाये ॥ साखी-जाके बल बडु हों ये, चुप उठाये सोय ॥ सीता व्याहों ताहिको, मिथ्या वचन न होय ॥ चोपाई।

शानसागर।चल मई सीता जद फुलवाई । देवी पूजन मातु पठाई ॥ आवत राम मार्ग जब देखा । सुफल जन्म आपुन तब लेखा।। अहो अंबिका आदि भवानी सुनिये मातृ हुम अन्तर्जामी ॥

मोर मनोरथ पुरखो माता । सो बर देव जो मन में राता ॥ विधि विन्ती सीताकी जानी। ततक्षण भई अकाश तें वाणी ॥

अहो सीता लक्ष्मी अवतारा । निश्चय तोर राम भरतारा ॥ सुनत संदेशा भयो अनंदा । जिमि चकोर पाये निशि चंदा ॥ देवी पूजि गई निज सीता । मनमें हर्ष बहुत पुनि कीता ॥

आई सिय जहें सृष्टि भुवारा। उठै न धनुष सबै बलहारा ॥ रावन वालि महा बलधारी । उठे न धनुष सबै बलहारी ॥

जब तृप जनक भाई विसमादा । उठे न धनुपजन्म मम बादा ॥ तव रघुवर मुनि को शिर नाबा । सभी माझी तब धनुप उठावा ॥ खींचो राम धनुष चढ़ो जवही । महा अघोर शब्द भयो तबही ॥

साखी-मुनि गण त्याग्योध्यान तब, महि मंडल भुई चाल॥ हरच्यो राजा जनक तथ, सियादीन्ह जयमाल ॥ चोपाई।

टूबो धनुप धूम भइ भारी । परसराम तब लाग गुहारी ॥ आवत तासु जो नृपति सकानें । बहुत नाम जो सुनत प्रमाण ॥ सभा मंझ आये परसरामा सब मिलि दंडक्त कीन्ह प्रणामा भृगुकुल कह सुन मिथिला राजाटोरचो धनु किन मोदि बताऊ।।

एपति करें धनुपमै मापा। तुम किसी काम करत है दपार देखि राम भूगुक किय रोपा। गारीं शीख जो करो भरोसा ॥ विहसे राम लखन दोइ भाई । हे जिज या न फरी घुरमाई ॥

जान মুझিि जिन होडु अथाना । मिट तितिर उगै जब भांगा ॥ बिज कुल देख किया परमाना । तातें तुमको भयो अभिमाना।

हे स्वामी मोहि आदि सुनाओ। कैसे पुरुष वह लोक बनाओ ॥ केसे द्वीप करी निर्मावा । होहु दयाल सो मोहि बतावा ॥

साहब कबीर वचन | सुन हंसा तो कहब विचारी । लोक द्वीप जिमि करी सम्हांरी ॥

ते देह दुतिया ना काऊ । सुरित सनेही जान कछु भाऊ नहि तहाँ पाँच तत्त्व परगाशा । गुन तीनों नहिं नहीं अकाशा ॥

नहिँ तहँ ज्योति निरंजनराया । नहिं तहँ दशौ जनम निर्माया ॥

नहि तहँ ब्रह्मां विष्णु महेशा | आदि भवानी गवरि गनेशा ॥.

नहि तहँ जीव सीव कर मूला । नहिं अनंग जिहिते सब फूला ॥

नहि तहँ ऋषी सहस्र अठासी । षट दरशन न सिद्ध चौरासी ॥ सात वार पन्द्रह तिथि नाहीं । आदि अंत नहिं काल की छाहीं॥-~-

छंद ।

नहिं कुरम्ह चक्रिय वारि पर्वत अनि वसुधा नाहिं हो ॥

शून्य विशून्य न तहां होई अगाध महिमा सो कहो ॥

जिमि पुहुप तिभि छाय राखो बास भरो ता संग मई ॥

स्वरूप बूझो अगम महिमा आदि अक्षर अंग मई ॥

सोरठा – प्रगट कहौ जिमि रूप, देखो हृदय विचारि के ॥

आदहि रूप स्वरूप, जिहिं ते सकल प्रकाश भयो ॥
चौपाई |

तिनहिं भयो पुन गुप्त निवासा । स्वासा सार तें पुहुंमि प्रकाशा ॥

सोई पहुप विना नर नाला । ज्योति अनेक होत झल हाला ॥.

पुहुप मनोहर सेतई भाऊ । पुहुप द्वीप सबही निर्माऊ ॥

अजै सरोवर कीन्हों सारा । अष्ट कमल ते आठौं वारा ॥

पोडश सुत तबही निर्मावा । कछू प्रगट कछु गुप्त प्रभावा ॥

लेखक स्वामी युगलानंद-Swami Yuglanand
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 112
Pdf साइज़5.8 MB
Categoryकाव्य(Poetry)

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