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आयुर्वेदिय औषधिगुण धर्मशास्त्र – Ayurvediya Aushadhigun Dharmashastra Pdf Free Download
आयुर्वेदिय: औषधिगुण धर्मशास्त्र
या और मेरी राह है. द विग विचार इत्यादि विविध कारणा ही सकते हैं पपाल खे আ कार (बोग)कबत दोष (भूषित पा)स, रसादि पनि समाविष्ट होते है यहरोखूप संयोग रोका जमणाची कारणा है.
यह बोपखुधि बसक स्वस्थानी पती और वसकी अबुलोम प्रवृत्ति समतक स আपराकी ‘पच’ अवस्था कहते है पना ए पान छोडकर बोर सम्मावामी होकर अपने सकष दिचसाने समते है उस अय स्थाको कोष’ और जब वे सब शरीरमे कैलते है
तब उस अवस्थाको ‘सर’ करते है. सर्थ आरके केने परमी शरीर के कुछ विभागीय अधिक प्रमाणामे संचित हुए नजर आते है, उस अव्याकी ‘स्थामसंक्षय ‘ कहते है. रोग निदान ‘यय’ अवस्वाने निधित हुआ हो और योग्य चिकित्सा की जाय तो आगेको अवस्था रह सकती है. इस सरहद रोगवितान आयुर्वेद शास्त्र का हदत है,
रोगाको अवस्था पहचान के लिए सब लक्षणोका सूक्ष्म विचार संथा रोगी की मावनाओकी तलाश दिशतरशः: करनी चाहिए, केवल रोगजंतू देखोगे मे आये तो इस रोगका इलाज नही कर सकते है. क्यों कि वे रोगातू एक रोगीके शरीरमे कुछ लक्षणा पैदा करेंगे
तो दूसरे रोगांके शरीरमे उनके विपरीत लक्षणा उत्पन्न कर सकते है. ककी भिशताके अनुसार औपभियोजनाभी मिश होगी. यह ही मादाय चिकित्साका विशेष है. दोषाधीमी एक एक दोषकी एक्सी नही रहती है.
इन २ दोषोंके मित्र मिच गुणा कम या अधिक हो सकते है. याने एक रम्शा कफका शुरत्च (भारीपन) शुरा यढनेके कारशा व्यापित होगा तो दूसरा, कफका निग्धत्व झुगा बड जानेसे तकनीफ उठाएगा.
पिसतका तीपात्व हुगा बह जानेपर मिव कक्षा पाये जातो उसीका दचत्य शुरा बदमेसे उनका पतामीम होगा. एकही लक्षर लेतो भी उपलकगि अनुसार चिकित्सा मित्र होगी. उदाहरणार्थ:-4 (वमन) नसके साथ जलन हो तो-प्रपाजभस्म,. कामाला अधिक और के पतनी माती हो तो सुचरो मादि
४ इस विषयपर प्रथम आयुर्वेद् विद्यालयमे व्याख्यान हुए थे. सन १९१५ के वाद हमारे सिषग्विल्लास ” मासिकमे कुछ लेख प्रसिद्ध किये गये. उनको देखकर डॉक्टर, चेच्च ओर विद्यार्थी वाचक संतोषित हो गये और उनकी पत्ररूप आज्ञा देख कर ये सब पुस्तकरुपसे प्रसिद्ध किये जाते है.
आयुवेद्शासत्रका पठन करते समय ही हमको यह एक तीन इच्छा हुई कि ‘ औषधियश॒ुणधर्मशातत्र ” कुछ नयी रीतिले ओर विस्तरश+ लिखने की जरूरत है.
इसकी पूर्तता के लिए; हम पहलेसेही हमारा अनुभव लिखकर रख देते थे और आयुर्वदीय उपपक्ती तथा सिद्धांतोंके अनुसार दोषप्रत्यनीक चिकित्साका फल देखकर हमारा विश्वास चढता गया, आज तक ये शुणाधर्म सत्रमय भाषामे लिखे हुए थे, उनन््हीकी हमने विस्ताररूपमे प्रकट किया है. न तो हमने इसमे कुछ गोलमाल किया न कुछ वास्तवसे अधिक घरशणोन किया.
केवल भ्रमरके प्रयत्न जैसा यह हमारा यत्न है. मित्र भिन्न अंथोमेसे ‘सचु? मिलाकर एक पंथ मे संम्भमीलित किया है ओर मानो पुराने लोटेकी जगह आजकलकी स्वच्छ बोतलमे भर दिया है.
इस प्रथम जो विस्तार है वह सब उपरुग्णा पद्धतीसे (०४४०४) अजमाया गया है. रोगियोंसे ओषधका प्रभाव देखकर यह सब लिखा जया है. प्रयोगशालामे औपचधियोका रासायनिक प्रथक्वरणा करनेका खसुभीता हसारे पास न था. अगर प्रयोगशाला रहती तो भी हमे विश्वास नही कि उससे कुछ लाभ होता.
क्योंकि आयुर्वेदशास्यकी औषधिकरणाकी रीति इतनी चमत्कारिक है कि उन औषधियोंका रासायनिक पृथक्करणा शायद्ही हो सके, एक हजार पुट दे कर बनाई हुई अभ्नकभस्म किस रीतसे प्थकक्कतत होगी ? हमने एक समय अश्वकभसस्स जॉच फरवानेके लिए बिलायत भेजी थी.
इसका रिपोर्ट क्या हुआ ? तो यह केवल खाकही है ! जिस अपभ्रकभस्मसे हम रोजाना हजारों रुग्णा जन की आराम दे सकते है ऐसे प्रभावशाली अश्लकभस्मकी जांच यह है! इसी लिए ऊपर लिखी हुईं उपरुग्णा पद्धति हमने स्वीकृत की है.
उपरूग्गा पद्धतीसे, संशोधन कुछ सुभीते से हो सकता है. इसके माने यह नहीं कि कोईभी झटसे इस तरह संशोधन कर सके, प्रथम ‘रोमनिदान, ओषधिगुराधमेशासत्र ओर चिकित्साशास्त्र’ इनमें प्राविष्य होना चाहिए, रोगीको देख कर उसके विकारका स्वच्छ निदान सब लक्षणोकोी ओर रोगकी अवस्थाकों देख कर निश्चित करना, रोगवि’निश्चयके बाद ओषधिविनिश्चय, ओषचधीका प्रमाणा इत्यादि निश्चित, करना चाहिए.
प्रायोगिक पद्धतीका उपयोग आज अशकक््य है. तव भी आजकल के आयरवेदशार्नोन्नति के प्रयत्न देखे तो आशा दि्खिती है कि कुछअसेके बाद यह भी शवय होगा. तब तक उपरुग्णा पद्धतीका ही पूर्णोउपयोग करना चाहिए.
जहाँ तक प्रायोगिक संशोधन पद्धतीका सहाय्य मिल सके, वह बिलकुल न छोडना चाहिए. जेसे रुग्णाविज्ञाशशालामे तपेदिकके जंतुआओकी जॉच करनेसे कुछ बहुत श्रम नहीं लगते है. रोगनिदान निश्चित करनेके लिए तथा तपेद्किके शोगीपर उपचार करनेके वाद ये कॉडे सर गये हो या नदी यह देखनेके लिए यह पद्धति पूणोवया उपयुक्त होगी.
खुबर्णाभस्मके सेवनसे तपेदिकके रोग्रियोंको सचमुच फायदा होता है या नही इसकी यहह्दी एक खात्रीलायक जाँच होगी. ज्वर्वेगका मापन थर्माभीयर लेकर करें तो उससे आशुर्वेद्शासख्रका कुछ लुकसान नही. तपेदिक की सचमुच अवस्था जाननेके लिए क्ष किरणांका सहाय्य लें तो ओरभी अच्छा होगा.
इसके माने यह नही है कि रोगनिदान करनेसे वेय केवल अबजारोंपर भरोसा रखे. इस भरोसेकी अपेक्षा वह खुद अपनी शाखइद्धि: आर शोधकलुछ्लि बढावे दो अधिक फायदा होगा.
लेखक | गंगाधर शास्त्री गुने-Gangadhar Shastri Gune |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 162 |
Pdf साइज़ | 9 MB |
Category | आयुर्वेद(Ayurveda) |
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