विवेक एवं तंत्र चूडामणि – Vivek Chudamani Book/Pustak PDF Free Download

पुस्तक का एक मशीनी अंश
जीवोंको प्रथम तो नरजन्म ही दुर्लभ है, उससे भी पुरुषत्व और उससे भी ब्राह्मणत्वका मिलना कठिन है: ब्राह्मण होनेसे भी वैदिक धर्मका अनुगामी होना और उससे भी विद्वत्ताका होना कठिन है।
[यह सब कुछ होनेपर भी] आत्मा और अनात्माका विवेक, सम्यक् अनुभव, ब्रह्मात्मभावसे स्थिति और मुक्ति-ये तो करोड़ों जन्मोंमें किये हुए शुभ कर्मों परिपाकके बिना प्राप्त हो ही नहीं सकते।
वहाँ मनस्कियोंने जिज्ञासाके चार साधन बताये हैं उनके होनेसे ही सत्यस्वरूप आत्मामें स्थिति हो सकती है, उनके बिना नहीं । आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः परिगण्यते। इहामुत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरम् ॥ १९ ॥
शमादिषट्कसम्पत्तिर्मुमुझ्षुत्वमिति स्फुटम्। पहला साधन नित्यानित्य-वस्तु-विवेक गिना जाता है, दूसरा लौकिक एवं पारलौकिक सुख-भोगमें वैराग्य होना है, तीसरा शम, दम, उपरति, तितिक्षा, का, समाधान-ये सम्पत्तियाँ हैं और चौथा मुमुक्षुता है।
बरह्म सत्यं जगन्मिध्येत्येवंरूपो विनिश्चयः ॥ २० ॥ सोऽयं नित्यानित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः।
‘ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है’ ऐसा जो निश्चय है यहीँ ‘नित्यानित्यवस्तु-विवेक’ कहलाता है। तद्वैराग्यं जुगुप्सा या दर्शनश्रवणादिभिः ॥ २१ ॥
देह्यदिब्रह्मपर्यन्ते ह्यनित्ये भोगवस्तुनि। दर्शन और अ्रवणादिके द्वारा देहसे लेकर ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण अनित्य भोग्य पदार्थोमे जो घृष्णाबुद्धि है वही ‘वैराग्य’ है। विरज्य षयव्राताददोषदृष्ट्या मुहुर्मुहुः ॥ २२ ॥
स्वलक्ष्ये नियतावस्था मनसः शम उच्यते।बारम्बार दोष-दृष्टि करनेसे विषय समूहसे विरक होकर चित्तका अपने लक्ष्य स्थिर हो जाना हो ‘शम’ है। विषयेभ्यः परावर्त्य स्थापनं स्वस्वगोलके ॥ २३॥
उभयेषामिन्द्रियाणां बाह्यानालम्बनं स दमः परिकीर्तितः । वृत्तेरेषोपरतिरूत्तमा ॥ २४॥
कर्मेन्द्रिय और जानेन्द्रिय दोनोको उनके विषयोसे खोचकर अपने अपने गोलकोंमें स्थित करना ‘दम’ कहलाता है। कृतिका बादा विषयोंका । ले यउप ‘उपरकि है। सहनं दुःखानामप्रतीकारपूर्वकम् । चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते ॥ २५ ॥
चिन्ता और शोकसे रहित होकर बिना कोई प्रतिकार किये सब प्रकारके कष्टोंका सहन करना ‘तितिक्षा’ कहलाती है। शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य सत्यबुद्ध्यवधारणम्। सा श्रद्धा कथिता सदभिर्यया वस्तूपलभ्यते ॥ २६ ॥
शास्त्र और गुरुवायोंमें सत्यत्व बुद्धि करना-इसीको सज्जनोंने ‘श्रद्धा’ कहा है, जिससे कि वस्तुकी प्राप्ति होती है।सर्वदा स्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्रह्मणि सर्वथा । तत्समाधानमित्युक्तं न तु चित्तस्य लालनम् ॥ २७ ॥
अपनी बुद्धिको सब प्रकार शुद्ध ब्रह्में ही सदा स्थिर रखना इसीको समाधान’ कहा है। चितकी इच्छापूर्तिका नाम समाधान नहीं है। अहंकारादिदेहान्तान्वन्धानज्ञानकल्पितान् स्वस्वरूपावबोधेन मौक्तुमिच्छा मुमुक्षुता॥ २८ ॥
लेखक | शंकराचार्य-Shankarachary, Gita Press |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 153 |
Pdf साइज़ | 9.1 MB |
Category | धार्मिक(Religious) |
तंत्र चूडामणि
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