साईं सच्चरित्र | Sai Satcharitra PDF In Hindi

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साईं सच्चरित्र – Sai Satcharitra PDF Free Download

ग्रंथ लेखन हेतु

किस प्रकार विचिका ( हैजा) के रोग के प्रकोप को आटा पिसवाकर तथा उसको ग्राम के बाहर फेंकशन रोका तथा उसका उन्मूलन किया, बाबा की इस लीला का प्रथम अध्याय में वर्णन किया जा चुका है।

मैंने और भी लीलाएं सुनीं, जिनसे मेरे हृदय को अति आनंद हुआ और यही आनन्द का स्त्रोत काव्य (कविता) रूप में प्रकट हुआ।

मैंने यह भी सोचा कि इन महान् आश्चर्यजनक लीलाओं का वर्णन बाबा के भक्तों के लिये मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद सिद्ध होगा तथा उनके पाप समूल नष्ट हो जाएँगे।

इसलिए मैंने बाबा की पवित्र जीवन गाथा और मधुर उपदेशों का लेखन प्रारम्भ कर दिया। श्री साई की जीवनी न तो उलझनपूर्ण है और न संकीर्ण ही है, वरन सत्य और आध्यात्मिक मार्ग का वास्तविक दिग्दर्शन कराती है।

कार्य आरम्भ करने में असमर्थता और साहस श्री. हेमाडपन्त को यह विचार आया कि मैं इस कार्य के लिए उपयुक्त पात्र नहीं हूँ।

मैं तो अपने परम मित्र की जीवनी से भी भली भाँति परिचित नहीं है और न ही अपनी प्रकृति से तब फिर मुझ जैसा मूवमति मला एक महान संतपुरुष की जीवनी लिखने का दुस्साहस कैसे कर सकता है?

अवतारों की प्रवृति के वर्णन में वेद भी अपनी असमर्थता प्रगट करते हैं किसी सन्त का चरित्र समझने लिए स्वयं को पहले सन्त होना नितांत आवश्यक है।

फिर मैं तो उनका गुणगान करने के सर्वथा अयोग्य ही हूँ संत की जीवनी लिखने में एक महान साहस की आवश्यकता है और कहीं ऐसा न हो कि चार लोगों के समक्ष हास्य का पात्र बनना पड़े, इसलिए श्री साई बाबा की कृपा प्राप्त करने के लिए में ईश्वर से प्रार्थना करने लगा।

महाराष्ट्र के संतश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर महाराज का कथन है कि संतचरित्र के रचयिता से परमात्मा अति प्रसन्न होता है। तुलसीदासजी ने भी कहा है कि साधुचरित शुभ सरिस कपासू निरस विषद गुणमय फल जासू।

जो सहि दुःख पर छिद्र दुरावा वंदनीय जेहि जग जस भावा।।” मक्तों को भी संतों की सेवा करने की इच्छा बनी रहती है। संतों की कार्य पूर्ण करा लेने की प्रणाली भी विचित्र ही है।

यथार्थ प्रेरणा तो संत ही किया करते है, भक्त तो निमित्त मात्र, या कहिऐ कार्यपूर्ति के लिये एक मंत्र मात्र है। उदाहरणार्थ शक सं. १७०० में कवि महीपति को सत चरित्र लेखन की प्रेरणा हुई सन्तों ने अंतःप्रेरणा पैदा की और कार्य पूर्ण हो गया।

इसी प्रकार शक सं. १८०० में श्री दासगणू की सेवा स्वीकार हुई। महीपति ने भार काया रथे-भक्तविजय, सतविजय मक्तलीलामृत और संतलीलामृत और दासगणू ने केवल दो भक्तलीलामृत और संतकथामृत-जिसमे आधुनिक संतों के परित्रों का वर्णन है।

भक्तलीलामृत के अध्याय ३१, ३२, और ३३ तथा संत कथामृत के ५७ में अध्याय में श्रीसाई बाबा की मधुर जीवनी तथा अमूल्य उपदेशों का वर्णन सुन्दर एवं रोचक ढंग से किया गया है।

इनका उद्धरण श्रीसाईलीला पत्रिका के अंक ११.१२ और १७ में दिया गया है। पाठकों से इनके पठन का अनुरोध है।

इसी प्रकार श्रीसाईबाबा की अद्भुत लीलाओं का वर्णन एक बहुत सुन्दर छोटीसी पुस्तिका श्रीसाईनाथ मजनमाला में किया गया है। इसकी रचना बान्द्रा की श्रीमती सावित्रीबाई रघुनाथ तेंडुलकर ने की है।

ग्रंथ लेखन का हेतु

किस प्रकार विसूचिका (हैजा) के रोग के प्रकोप को आटा पिसवाकर तथा उसको ग्राम के बाहर फेंककर रोका तथा उसका उन्मूलन किया, बाबा की इस लीला का प्रथम अध्याय में वर्णन किया जा चुका है।

मैंने और भी लीलाएं सुनीं, जिनसे मेरे हृदय को अति आनंद हुआ और यही आनन्द का स्त्रोत काव्य (कविता) रूप में प्रकट हुआ। मैंने यह भी सोचा कि इन महान आश्चर्यजनक लीलाओं का वर्णन बाबा के भक्तों के लिये मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद सिद्ध होगा तथा उनके पाप समूल नष्ट हो जाएंगे।

इसलिए मैंने बाबा की पवित्र जीवन गाथा और मधुर उपदेशों का लेखन प्रारम्भ कर दिया। श्री साई की जीवनी न तो उलझनपूर्ण है और न संकीर्ण ही है, वरन् सत्य और आध्यात्मिक मार्ग का वास्तविक दिग्दर्शन कराती है।

कार्य आरम्भ करने में असमर्थता और साहस श्री. हेमाडपन्त को यह विचार आया कि में इस कार्य के लिए उपयुक्त पात्र नहीं हूँ मैं तो अपने परम मित्र की जीवनी से भी भली भाँति परिचित नहीं हूँ और न ही अपनी प्रकृति से तब फिर मुझ जैसा मूढमति मला एक महान संतपुरुष की जीवनी लिखने का दुस्साहस कैसे कर सकता है? अवतारों की प्रवृति के वर्णन में वेद भी अपनी असमर्थता प्रगट करते हैं।

किसी सन्त का चरित्र समझने के लिए स्वयं को पहले सन्त होना नितांत आवश्यक है। फिर मैं तो उनका गुणगान करने के सर्वथा अयोग्य ही हूँ।

संत की जीवनी लिखने में एक महान् साहस की आवश्यकता है और कहीं ऐसा न हो कि चार लोगों के समक्ष हास्य का पात्र बनना पड़े, इसलिए श्री साई बाबा की कृपा प्राप्त करने के लिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करने लगा।

महाराष्ट्र के संतश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर महाराज का कथन है कि संतचरित्र के रचयिता से परमात्मा अति प्रसन्न होता है। तुलसीदासजी ने भी कहा है कि साधुचरित शुभ सरिस कपास निरस विषद गुणमय फल जासु ।।

जी संहि दुःख पर छिद्र दुरावा वंदनीय जेहि जग जस पाया। मक्तों को भी संतों की सेवा करने की इच्छा बनी रहती है संतों की कार्य पूर्ण करा लेने की प्रणाली भी विचित्र ही है।

यथार्थ प्रेरणा तो संत ही किया करते है. मक्की निमित्त मात्र, या कहिऐ कार्यपूर्ति के लिये एक यंत्र मात्र है।

उदाहरणार्थ शक सं. १७०० में कवि महीपति को संव चरित्र लेखन की प्रेरणा हुई। सन्तों ने अंतःप्रेरणा पैदा की और कार्य पूर्ण हो गया। इसी प्रकार शक स. १८०० श्री दासगणू की सेवा स्वीकार हुई।

महीपति ने धार काव्य रचे-भक्तविजय, संतविजय, भक्तलीलामृत और रासलीलामृत और दासगणू ने केवल दो भक्तलीलामृत और संतयामृत-जिसमें आधुनिक संतों के चरित्रों का वर्णन है।

भक्तलीलामृत के अध्याय ३१, ३२, और ३३ तथा संत कथामृत के ५७ अध्याय में श्रीसाईबाबा की मधुर जीवनी या अमूल्य उपदेशों का वर्णन सुन्दर एवं रोचक ढंग से किया गया है।

इनका उद्धरण श्रीसाईलीला पत्रिका के अंक ११,१२ और १७ में दिया गया है।

पाठकों से इनके पठन का अनुरोध है। इसी प्रकार श्रीसाईबाबा की अद्भुत लीलाओं का वर्णन एक बहुत सुन्दर छोटीसी पुस्तिका श्रीसाईनाथ भजनमाला में किया गया है। इसकी रचना बान्द्रा को श्रीमती सावित्रीबाई रघुनाथ तेंडुलकर ने की है।

लेखक
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 190
PDF साइज़8.2 MB
CategoryReligious

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