प्रेम योग – Prem Yog Book/Pustak PDF Free Download

Religion Of Love
पर-धन धान्य, कपड़े लने, पुत्र कलत्र, बंधु बांधव, और अन्यान्य सामग्रियों पर कैसी इढ प्रीति करते हैं। इनवस्तुओं के प्रति उनकी कैसी घोर आसक्ति रहती है।
इसीलिये इस परिभाषा में वे भक विराज कहते हैं” वैसी ही प्रबल आसक्ति, वैसी ही दृढ़ संलग्नता केवल तेरे प्रति मुझे रहे ” ऐसी ही प्रीति जब ईश्वर के प्रति की जाती है तय वह ” चमकती ” कहाती है! भक्ति फिसी चस्तुका संदार नहीं करती वरन् भ्ति हमे यह सिखाती है कि हमें जो २ शक्तियां दी गई हैं उनमे से कोई भी निरर्थक नहीं है बल्कि उन्हीं के अन्तर्गत हमारी मुक्ति का स्वामाविक मार्ग है मक्ति न तो किसी वस्तु का निषेध ही करती है, न वह हमें प्रकृति के विरुद्ध ही चलाती है।
मक्ति तो केवल हमारी प्रकृति को ऊँची उठाती है और उसे अधिक शक्तिशाली प्रेरणा देती है। शंद्रिय विपर्यापर हमारी कैसी स्वाभाविक श्रीति हुआ करती है।
ऐसी प्रीति किये बिना हम रह ही नहीं सकते क्योंकि ये विपय-ये पदार्थ हम इतने सत्य प्रतीत होते हैं।
साधारणतः हमें इनसे उच्चतर पदार्थों में कोई यथा देता ही नहीं दिखाई देती; पर जब मनुष्य इन इन्द्रियों के परे-इन्द्रियों के संसार के उस पार-किसी यथार्थ वस्तु को देख पाता है
तय वांछनीय यही है कि उस प्रीति को उस आसक्ति को बनाये तो रखे, और उस संसारिकविषय के पदार्थोसे हटाकर उस इन्द्रियों के परे वस्तु अर्थात् परमेश्वर में लगा देते ।
और जिस प्रकार का प्रेम इंद्रियों के भोग्य पदार्थों पर था उसी प्रकार का प्रेम मग- वान् में लग जाने पर उसका नाम ” भक्ति हो जाता है । सन्त श्रीरामानुजाचार्य के मतानुसार उस उत्कट प्रेम की प्राप्ति के लिये नीचे लिखी साधनाये हैं।
लेखक | स्वामी विवेकानंद-Swami Vivekananda |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 186 |
Pdf साइज़ | 4.4 MB |
Category | प्रेरक(Inspirational) |
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