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मध्यकालीन भारत का इतिहास नोट्स – History of Medieval India Notes PDF Free Download
मध्ययकालीन भारत की लड़ाईया
खानवा की लड़ाई
पूर्वी राजस्थान और मालवा पर आधिपत्य के लिए राणा साँगा और इब्राहीम लोदी के बीच बढ़ते संघर्ष का संकेत पहले ही किया जा चुका है।
मालवा के महमूद खल्जी को हराने के बाद राणा साँगा का प्रभाव आगरा के निकट एक छोटी-सी नदी पीलिया खार तक धीरे-धीरे बढ़ गया था।
सिंधु-गंगा घाटी में बाबर द्वारा साम्राज्य की स्थापना से राणा साँगा को खतरा बढ़ गया।साँगा ने बाबर को भारत से खदेड़ने,कम-से-कम उसे पंजाब तक सीमित रखने के लिए तैयारियां शुरू कर दीं।
बाबर ने राणा साँगा पर संधि तोड़ने का दोष लगाया है।वह कहता है कि राणा साँगा ने मुझे हिन्दुस्तान आने का न्यौता दिया और इब्राहीम लोदी के खिलाफ़ मेरा साथ देने का वायदा किया,लेकिन जब मैं दिल्ली और आगरा फ़तह कर रहा था |
तो उसने पाँव भी नहीं हिलाये।इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि राणा साँगा ने बाबर के साथ क्या समझौता किया था।
हो सकता है कि उसने एक लम्बी लड़ाई की कल्पना की हो,और सोचा हो कि तब तक वह स्वयं उन प्रदेशों पर अधिकार कर सकेगा जिन पर उसकी निगाह थी या,शायद उसने यह सोचा हो कि दिल्ली को रौंद कर लोदियों की शक्ति को क्षीण करके बाबर भी तैमूर की भाँति लौट जायेगा।
बाबर के भारत में ही रुकने के निर्णय ने परिस्थिति को पूरी तरह बदल दिया।
हुमायूं की गुजरात विजय और शेरशाह के साथ संघर्ष
में हुमायूँ दिसम्बर 1530 में 23 वर्ष की अल्पायु में बाबर की गद्दी पर बैठा।बाबर के पीछे छूटी अनेक समस्याओं का
उसे सामना करना पड़ा।प्रशासन अभी सुगठित नहीं हुआ था।
आर्थिक स्थिति भी डांवाडोल थी।
अफ़ग़ानों को पूरी तरह दबाया नहीं जा सका था,और वे अब भी मुगलों को भारत से खदेड़ने के सपने देखते थे और सबसे बड़ी बात थी पिता की मृत्यु के बाद पुत्नों में राज्य बांटने की तैमूरी परम्परा बाबर ने हुमायूँ को भाईयों से नर्मी से पेश आने की सलाह दी थी,लेकिन उसने इस बात का समर्थन नहीं किया था कि नये नये स्थापित मुगल साम्राज्य को विभाजित कर दिया जाए।
इसके भयंकर परिणाम हो सकते थे।
जब हुमायूँ आगरा में गद्दी पर बैठा,साम्राज्य में काबुल और कंधार सम्मिलित थे और हिन्दूकुश पर्वत के पार बदखणां पर भी मुगलों का ढीला-सा आधिपत्य था।काबुल और कन्धार हुमायूँ के छोटे भाई कामरान के शासन में थे।
यह स्वाभाविक था कि ये उसी के अधिकार में रहते।
लेकिन कामरान इन गरीबी से ग्रस्त इलाक़ों से संतुष्ट नहीं था।
उसने लाहौर और मुल्तान की ओर बढ़ कर उन पर अधिकार कर लिया।हुमायूँ कहीं और विद्रोह दबाने में व्यस्त था।
फिर वह गृह युद्ध प्रारम्भ भी नहीं करना चाहता था।
इसलिए उसके पास इस स्थिति को मंजूर करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था।
कामरान ने हुमायूँ की प्रभुत्ता मान ली और आवश्यकता पड़ने पर उसकी मदद करने का वायदा किया।कामरान के इस कृत्य से यह भय उत्पन्न हो गया कि हुमायूँ के और भाई भी अवसर मिलने पर वही कुछ कर सकते हैं।
किन्तु पंजाब और मुल्तान कामरान को देने का एक लाभ हुमायूँ को हुआ वह पश्चिम की ओर से निश्चित हो गया और
पूर्व की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करने का उसे अवसर मिला।
हुमायूँ को पूर्व के अफ़ग़ानों की बढ़ती शक्ति और गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह की विजयों दोनों से निपटना था।पहले हुमायूँ ने यह सोचा था कि दोनों में से अफ़ग़ान ख़तरा ज्यादा गम्भीर है।
1532 में दोराह पर उसने अफ़ग़ान सेनाओं को पराजित किया और जोन पुर को अपने अधिकार में ले लिया।अफ़ग़ान सेनाओं ने पहले बिहार जीत लिया था।
इस सफलता के बाद हुमायूँ ने चुनार पर घेरा डाल दिया।आगरा से पूर्व की ओर जाने वाले भागों पर इस शक्तिशाली किले का अधिकार था और यह पूर्वी भारत के द्वार के रूप में प्रसिद्ध था।
कुछ समय पूर्व ही इस पर शेरखाँ नाम के अफ़ग़ान सरदार का अधिकार हुआ था।शेरखाँ अफ़गान सरदारों में सबसे ज्यादा शक्तिशाली बन चुका था।
लेखक | – |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 106 |
PDF साइज़ | 25 MB |
Category | History |
Source/Credits | drive.google.com |
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