योग संध्या – Yoga Book Pdf Free Download
साधन करने वालों को अमृत की लता
मोहमय यह अपार संसार सागर अनादि और अनन्त है, जिसके पार होनेके वास्ते ऋषिळोगोंने चिरकाङ पर्यंत घोर तपश्चर्या की है ।
वही मार्ग इम लोगोंको मी श्रेयस्कर है, इससे लोगोंको उचित है कि इस मवसागरसे पार होनेका उपाय तप, जप, दान तीर्थ आदि करें। तप आदिकके करनेसे इस लोक और परलोक दोनोंमें सुख होताहै ।
इस छोकमें तो छोगोंमें प्रतिष्ठा मान मर्यादा, शरीरमें अरोग्यता, यशकी वृद्धि भौर 6. कान्ति होतीहै ।
एकको देखकर दूसरेको मी श्रद्धा होतीहै, यह भी एक उत्तम परमार्थ जीवों के कल्याणार्थ है, अन्तमें कर्मासार स्वर्ग की प्राप्ति या मोक्ष होताहै।
यह सब धर्म गृहस्थके ही वास्ते हैं, कारण कि जब गृहस्था श्रमका धर्म शुद्ध रहेगा अर्थात् स्वधर्मरूपी तप, प्रणव, गायत्री या गुरूपदेशते प्राप्त हुए
मन्त्रका जप, पर्वकाल आदिपर वित्तानुसार सत्पात्रोंको दान, और प्रयाग, काशी, गया आदि तीर्थोंकी यात्रा अथवा किसी का अनिष्ट न देखना, जैसा “तीर्थ परं किञ्च मनो बिशुद्धम्”
इस प्रकारके गृहस्थसे जो सन्तान उत्पन्न हो यदि त्रह्मचर्यादि व्रतको धारण करेगा तो बिना परिश्रम ही धर्मके प्रभाबते चिरका ठपर्यन्त सुखसे रहकर अन्तमें ब्रह्मलोकको प्राप्त होगा।
जब गृहस्थानम शुद्ध न हो तो सन्तान शुद्ध कहांसे होगा कि जिससे धर्माऽचरणकी वृद्धि हो, इस लिये गृहस्थको चाहिये कि स्वधर्मका प्रतिपालन करे । इसमे कहा है कि धन्यो गृहस्थाश्रमः”।
योग में मुख्य प्राणायाम है, जहां तक 1. प्राणायाम शुद्ध नहीं होता तहां तक उस पुरुषके चित्तकी चंचलता दुर नहीं होती ।
इसीसे सतब कर्मोनें “भाचम्य प्राणानायम्य” कहा है, सन्ध्याके पूर्व ही प्राणायाम कहके धनंतर आचमनादि कृत्य कहे हैं । अभिप्राय यह है कि प्राणायाम ही मुम्यकरके जन्मजन्मान्तरोंके कल्मषोंका नाशक और चित्तशुद्धिकारक है ।
योगाभ्यास करनेने मनुष्य बहुत दिनोंतक सुखपूर्वक जी सकताहै, शरीर शिथिल नहीं होताहै, बाल नहीं पकते और त्वचादिकोंका सिकुडना नहीं होता “वलीपलितवपन्नः”।
लेखक | सदाशिव नारायण-Sadashiv Narayan |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 202 |
Pdf साइज़ | 29.1 MB |
Category | साहित्य(Literature) |
योग संध्या – Yog Sandhya Book/Pustak Pdf Free Download