ययाति उपन्यास | Yayati PDF In Hindi By Vishnu Khandekar

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ययाति हिंदी में – Yayati by Vishnu Khandekar Pdf Free Download

ययाति उपन्यास

नवीन क्योंकि शर्मिष्ठा एक राज क्या है य परीक्षक उसकी दविता थैष्ठ बतावा जयाब बर ये है ‘ बार परीनका न हार और उस पुरलारको हम दानो म समान रप म बाद दिया

तय जागर वह बह चात हुई उस गमय पु्े प्रथम पुरस्कार मिला केवल चित्रकला प्रतियोगिता में और बह भी इस लिए वि देवयानी वो चित्र बनाना जाता ही नही ।

उसके पिता माननी लिए तपस्या करने बठे थ मजीवनी को यहायता से दानव देवताओं पर विजय पान जा रहे थे।

इसलिए मरे पिताजी शी मीति हमेशा यही रहती थी कि जा भी हा दबयानी नाराज न दिया जाए मुबे भी जाकी प्रेम मोति पर ही चलना पट्टा।

दो नार गही उमरी अनारी मनोयति की अनখ पटनाए मेरे मन पर गहरी अक्ति थी-भीतर ही घुसा रही थी।

सुबह मरा पहना हुआ वस्त्र यह उतारन लगी तब द सारी स्मृतिया बिस्कोट वे माय पट पड़ी ‘ लकिन यह राब मैं निगे गुनाक’ विस ओर बसे समझाऊं |

मरे मुह मे चार अपस अवश्य निवज गए बिन्दु थे आाज मेरे समूचे जीवन राध्वस करने जा रहे हो । इस एक गलती ने लिए राजकया वो दाती बनने की सजा दी जा रही है मैं राशी चन आऊ ?

अरमिचर र्मी यन जाए नि रात अपनी ही पूजा मं ी रहने वाली दस सुन्दर पाषाण मूर्ति की में गर्मी यन जाऊ ?

सभ्य नही । मही मरे मह से रावल अपसारी नही निकले । म नह रही थी, यह देवयानी बा हो है। न उपहार म रूप दिया था । मुमें उसे पहतनা नही चाहिए था।

अब भी मैं उस ही पहन हुए ह । लेनित जिस कच न अपनी जान ज्योतिष में डलर देव नवा का युद्ध ब कराया मेरे द्वारा दिल गए |

उपहार बालकर इतना भयगर गदा की हो कया नहा मान रात को ही मुझे अपन परत टीर तर क रर रस में बस ता हो कि यह यब मरा नहीं है?

घुत मे राज ये बनी यही गई है इसी राग्नि सब वाता को दासिया पर हो और दयनीय मात मुझे प’ गई।

१६४२ तक सारा भारतीय समाज एक ही घुन म मदहोश होकर स्वप्तो वी जिस दुनिया भ विचरता था, उस दुनिया मे धीरे धौर दरारे पडन लगी थी।

सन्‌ १६४७ म्‌ राजनीतिक स्वतत्नता मिली अवश्य, कितु उसस पहले ही विश्वयुद्ध के बारण उत्पन परिस्थिति न सामाजिक जीवन म कालेबाजार के विप-बीज वो दिए थे और वे अब जकुरित भी हाने लगे थे ।

यह सच है कि स्वराज्य भाने के कारण साधारण आदमी का मन इस जाशा स पुलक्ति हो ग्रया था कि अब धीर धीरे उसके सारे सपन पूरे हो जाएगं।

किलु उसी ज़माने मे साथ साथ इसके आसार भी धीरे धीरे प्रकट हीने लगे थे वि भारतीय सस्क्ृति म॑ जिन नैतिक मूल्यों का अधिप्ठान है उन मूल्यो की ओर समाज पीठ फेर रहा है।

सत्ता से लेकर सपदा तक सवत्न यही स्थिति साफ दिखाई दन लगी थी कि जिसवी लाठी उसीकी भसे। िसक जिए सम्भव था वहीं व्यवित भोगवाद का शिकार बनता जा रहा था। जिन जधिकाश लोगो क॑ लिए यह सम्भव नहीं था, उनकी चासनाए य >श्य देखकर उद्दीपित होने लगी था।

यद्यपि सामाजिक जीवन म आ रहे इस परिवतन म भौतिक दृष्टि से अनेक स्वागताह बातें था फिर भी समाजजीवन वी रीढ रहे नतिक मूल्य परो तले रौंदे जाने लगे थ।

प्रप्टाचार, कालावाजार, रिश्वतखोरी के बोलवाले के साथ ही पारिवारिक जीवन का स्थिरता प्रदान करन वान अनेक बधन भी शिथिल होते जा रह थे।

अत्यधिक मद्यपान से लकर अनिव-ध व्यभिचार तक्त—ऐसी ऐसी बातें धीरे धोरे बढती जा रही थी जि’ह सामाजिक दप्टि से पहले पाप मात्रा जाता था।

समाज चेतना भुलाने लगी थी कि खाओ पियो मज़ा करो के अलावा भी जीवन को गतिमान रखने वाले अनक उद्देश्य है।

नतिक मूल्यों पर घलने वालो की छुगति और उ’ह दुवराकर चलन वाला वी मनमात्री होती देखकर युवा पीढी का पारपरिंक मूल्या मे विश्यास ढहता जा रहा था।

एक तरफ यह अनुभव हो रहा था, और दूसरी तरफ अश्रु जैस सामाजिक उपास द्वारा मैं इस भयानक परि वतन वी झलक दिखान का प्रयास कर रहा था।

हर वीनत वप के साथ सामाजिक जीवन को स्वस्थता की दृष्टि में अत्यत अनुचित दुगूण समाजपुरुष के रक्त मे अधिकाधिक घुलते जा रहे थे!

भावुक मत के लिए यह देखत रहना कि समाज म॑ पाच-हस प्रत्तिशत अमीर लाग मनमानी मौज उडा रहे ह और अम्सी पचासी प्रतिशत गरीय लोग महगाई मे झलसने स बचने के तिए दयनीय छटपटाहट कर रह हैं कठिन हा चला था।

पारपरिक भारतीय समाज ने परनोक परमात्मा आाटि बल्पनाआ मे पूण श्रद्धा रखकर ही अनक नतिव बंधन स्वीकार किए थे।

ययाति मराठी भाषा में पढ़े

लेखक विष्णु सखाराम पाण्डेयकर – Vishnu Sakharam Pandeykar
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 357
PDF साइज़6.86 MB
Categoryउपन्यास(Novel)

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