वारां ग्यान रतनावली – Varan Gyan Ratnavali Book/Pustak Pdf Free Download

वारां गिआन रतनावली भाई गुरुदासजी
नागरी लिपि’ की केवल एक विशेषता है कि वह कमोबेश सारे देश में प्रविष्ट है, जबकि अन्य भारतीय लिपियाँ निजी क्षेत्रों तक सीमित है।
वहीं यह भी सत्य है नागरी लिपि में प्रस्तुत और विशेष रूप से खड़ी बोली का साहित्य, अन्य लिपियों में प्रस्तुत ज्ञानराशि की अपेक्षा कम और नवीनतर है।
अत: समस्त भाषाओं की ज्ञानराशि को, सर्वाधिक फैली लिपि ” नागरी ” में अधिक से अधिक लिप्यन्तरित करके, क्षेत्रीय स्तर से उठाकर सबको सारे राष्ट्र में, यहाँ तक कि विश्व में ले आना परम धर्म है।
विश्व की सब भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान (सत्साहित्य) तो है आत्मा, और ‘नागरी लिपि’ होना चाहिए उसका पर्यटक शरीर ।
अन्य लिपियों को बनाये रखना भी कर्तव्य है वस्तुतः यह परम धर्म है कि समस्त सदाचार साहित्य को नागरी में तत्परता से प्राचुर्य में लिप्यन्तरित करना।
किन्तु साथ ही यह भी परम धर्म है कि देशी- विदेशी अन्य सभी लिपियों को उत्तरोत्तर उन्नति के साथ बरकरार रखना। यह इसलिए कि सबका सब कभी लिप्यन्तरित नहीं हो सकता।
अत: अन्य लिपियों के नष्ट होने और नागरी लिपि मात्र के ही रह जाने से विश्व की समस्त अ-लिप्यन्तरित ज्ञानराशि उसी प्रकार लुप्त-सुप्त होकर रह जायगी जैसे पाली, प्राकृत और अपभ्रंश, सुरयानी आदि का वाङ्मय रह गया।
जगत् तो दूर, राष्ट्र का ही प्राचीन आप्तज्ञान विलुप्त हो जायगा। नागरी लिपि वालों पर उत्तरदायित्व विशेष ।
इन दोनों परम धर्मों की पूर्ति का सर्वाधिक भार नागरी लिपि वालों पर है, इसलिए कि उनको सम्पर्क लिपि ‘ का श्रेष्ठ आसन प्रदत्त है।
मैं कह सकता हूँ कि उन्होंने अपने कर्तव्य का, जैसा चाहिए था, वैसा निर्वाह नहीं किया परन्तु उसकी प्रतिक्रिया में अन्य लिपि
लेखक | भाई गुरदास जी – Bhai Gurdas Ji |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 709 |
Pdf साइज़ | 72.5 MB |
Category | धार्मिक(Religious) |
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