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सुखी होने के उपाय – Sukhi Hone Ke Upay PDF Free Download
साधनामय जीवन
मन जिस प्रकारकी भावनामें रहता है, मनमें जो चीजें रहती हैं, उसी प्रकारसे, उसी भावसे वह मनुष्य जगत्को देखता है। जिसके मनमें बुरा भाव है वह जगत्में सर्वत्र बुराई ही देखता है।
वह उन्हीं बुरे भावोंको देखता है और उन्हींको ग्रहण करता रहता है। जिसके मनमें षडविकार काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ और मत्सर भरे रहते हैं उसको भगवान्में भी ये दीखते हैं।
उसकी मनकी आँख वैसी ही बन जाती है। जिसके मनका जैसा भाव है वैसा उसका स्वरूप और जैसा अपना स्वरूप उसी प्रकारकी उसकी जगत्में अनुभूति होती है। परन्तु यह मिथ्या अनुभूति है।
जैसे रंग असली दूसरा हो और अगर किसी अन्य रंगका चश्मा आँखपर लगा है तो चश्मेका रंग उस रंगमें दीखता है। हालाँकि वह रंग नहीं है। दूसरा रंग है।
हरे चश्मेवालेको हरा दीखता है और नीले चश्मेवालेको नीला दीखता है। इसी प्रकार सत्यपर, भगवान्के स्वरूपपर हमारी दृष्टिमें एक आवरण आ जाता है। उस आवरणके कारणसे हम भगवान्के वास्तविक रूपको नहीं देख पाते हैं।
हम विकृत देखते हैं। अपने आप हमने अपनेको विसरा दिया है। अपने अर्थात् आत्मस्वरूप। अपनपा अर्थात् भगवान्को देखनेकी आँखें। इसको हमने भुला दिया।
इसलिये हमारी आँखोंपर नाना प्रकारके परदे आ गये। रंग चढ़ गये। और उस रंगसे हम विभिन्न प्रकारसे अपने विभिन्न भावोंसे जगत्को देखते हैं। जगत् में सर्वत्र भरे भगवान्की जगह हम न मालूम क्या-क्या देखते हैं और क्या-क्या सुनते हैं।
शास्त्रकारोंने कहा है कि अगर न देख सको, वैसी आँखें जबतक न मिल जायँ तबतक कम-से-कम मनसे ऐसी भावना करो। पहले मनमें निश्चय करो फिर भावना करो। बुद्धिसे निश्चय हो जाय कि जो कुछ हैं वह भगवान् ही हैं।
मन और बुद्धि इन दो में निश्चय होता है। बुद्धि निश्चय करती है और मन भावना करता है। मन संकल्प-विकल्पात्मक है।
संकल्पकी वस्तुका ही बार-बार मनन करना, इसका नाम चित्त है। चिन्तन करनेवाला चित्त, संकल्प-विकल्प करनेवाला मन और निश्चय करनेवाली बुद्धि। मन और चित्त एक ही है।
वास्तवमें तो ये चार करण जो हैं वह एक ही अन्तःकरणके चार वृत्तियोंके रूप हैं। इनमें मन और चित्तको किसी किसीने दो माना है और किसी-किसीने एक माना है।
मनके द्वारा यह भावना हो गयी कि सब भगवान् हैं और बुद्धिके द्वारा निश्चय हो गया कि सब भगवान् हैं। अब जो क्रिया होगी वह इस मन, बुद्धिके अनुसार होगी।
प्रत्येक क्रियामें यह भाव हो जाय कि यह क्रिया जो कुछ मैं कर रहा हूँ-जो कुछ बोल रहा, जो कर रहा हूँ, खा रहा हूँ यह सारा कुछ भगवान् के साथ हो रहा है।
इस प्रकार भगवान्के साथ मन और बुद्धिका सम्पर्कित हो जाना प्रत्येक कर्मको भगवान्की पूजा बना देता है।
इसीको श्रीमद्भागवतमें कहा है-मृत्युञ्जययोग- मृत्युपर विजय प्राप्त करा देनेवाला योग यह संसारकी जो भी खुराफात हमसे होती है यह पहले हमारे मनमें होती है।
जितनी इन्द्रियाँ हैं यह सब चीजोंको ग्रहण करती हैं मनकी सहायतासे और सौंप देती हैं ले जाकरके मनको।
यह नियम है। आँखके सामने चाहे कैसी भी चीज आ जाय यदि आँखके साथ उस समय मन नहीं है तो उस चीजको आँख ग्रहण नहीं करती है।
सामने कैसा भी शब्द आ जाय परन्तु यदि कानके साथ उस समय मन नहीं है तो उस चीजको कान ग्रहण नहीं करता है। यह नियम है।
कोई कितना भी जोरसे बोलता हो और हम पास बैठे हों लेकिन मन कहीं और लगा हो तो हम बादमें कह देंगे कि भई, तुम बोल तो बहुत जोरसे रहे थे लेकिन मेरा मन और था, मैंने ध्यान नहीं दिया। फिरसे बताओ क्या कहा? यह क्या चीज है?
बिना मनके इन्द्रिय किसी विषयको ग्रहण नहीं कर सकती है। मनकी सहायतासे इन्द्रिय विषय ग्रहण करती है और ग्रहण करके वहाँ ले जाती है?
लेखक | हनुमान प्रसाद-Hanuman Prasad |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 155 |
Pdf साइज़ | 351.4 KB |
Category | प्रेरक(Inspirational) |
सुखी होने के उपाय – Sukhi Hone Ke Upay PDF Free Download