भारत के सामाजिक मुद्दे | Social Issues Of India PDF In Hindi

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भारतीय सामाजिक समस्याऐ – Indian Social Problems PDF Free Download

सामाजिक मुद्दे

प्रस्तावना

समाजशास्त्र एक विशुद्ध विज्ञान है अथवा व्यावहारिक विज्ञान? यह प्रश्न समाजशास्त्र में अत्यधिक चर्चित रहा है।

कुछ विद्वानों का मत है कि समाजशास्त्र का उद्देश्य केवल सामाजिक घटनाओं के बारे में नवीन ज्ञान प्राप्त करना है तथा किसी प्रकार का निर्णय देना या समस्याओं का समाधान करना कदापि नहीं है। ऐसे विद्वान् समाजशास्त्र को विशुद्ध विज्ञान मानते हैं।

दूसरी ओर, आज अधिकांश विद्वानों का यह मत है कि समाजशास्त्र सहित सभी सामाजिक विज्ञान का उद्देश्य सामाजिक जीवन को प्रगतिशील बनाना है। यह तभी सम्भव है जब समाज में विद्यमान समस्याओं का का अध्ययन किया जाए।

इस दृष्टि से समाजशास्त्र एक व्यावहारिक विज्ञान है। समाजशास्त्र में सामाजिक समस्याओं, सामाजिक विघटन, सामाजिक व्याधिको जैसे विषयों का अध्ययन इस बात का द्योतक है कि समाजशास्त्र एक व्यावहारिक विज्ञान है तथा नीति-निर्धारक समाजशास्त्रियों से सामाजिक समस्याओं के कारणों को समझने तथा उनके समाधान हेतु उपाय सुझाने की आशा रखते हैं।

सामाजिक नियोजन की दृष्टि से भी आज समाजशास्त्र एक महत्त्वपूर्ण विषय हो गया है। प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों ने भी तत्कालीन समाजों में विद्यमान समस्याओं का अध्ययन कर यह दर्शाने का प्रयास किया कि समाजशास्त्री इन समस्याओं को समझने से विमुख नहीं हो सकते।

इसीलिए आज भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में भारत में विद्यमान प्रमुख समस्याओं से सम्बन्धित किसी-न-किसी नाम से एक प्रश्न-पत्र पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाता है।

चूंकि समाजशास्त्र में क्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाया जाता है इसलिए यह विषय सामाजिक समस्याओं के कारणों को समझनमें सहायक है।

सामाजिक समस्याओं के कारणों को समझना उनके समाधान हेतु आवश्यक माना जाता है।

सामाजिक समस्या की उत्पत्ति

सामाजिक समस्या की उत्पत्ति अनेक कारणों से होती है। जब सामाजिक संगठन में सामंजस्य समाप्त हो जाता है और समाज द्वारा प्रचलित मूल्यों, आदशों व नियमों में अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो सामाजिक समस्या जन्म लेती है।

जॉन केन के अनुसार जब कभी समाज द्वारा प्रचलित मूल्यों एवं आदर्श के प्रतिकूल परिस्थितियां विकसित हो जाती है तो अनेक प्रकार की समस्याएं जन्म लेने लगती है।

सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति यद्यपि अनेक कारणों एवं परिस्थितियों के कारण होती है फिर भी प्रत्येक सामाजिक समस्या कुछ निश्चित चरणों में से गुजर कर ही विकसित होती है।

फुल्लर एवं मेयर्स ने सामाजिक समस्या के स्वाभाविक एवं प्राकृतिक विकास के चरणों की विस्तृत विवेचना की है।

प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं चेतना की स्थिति – सामाजिक समस्या के विकास का प्रथम चरण समाज के व्यक्तियों में सामाजिक व्यवस्था एवं सामान्य जीवन को अवरुद्ध करने वाली कठिनाइयों के बारे में चेतना

है। समाज के अधिकांश सदस्य इन्हें महसूस करने लगते हैं और उनके बारे में सोच विचार शुरू कर देते हैं।

कठिनाइयों का स्पष्टीकरण— द्वितीय चरण में कठिनाइयाँ अधिक स्पष्ट हो जाती हैं और सामान्य जनता इनसे असुविधा महसूस करने लगती है और इनकी ओर स्पष्ट इशारा किया जाने लगता है।

सुधार कार्यक्रमों या लक्ष्यों का निर्धारण समस्या स्पष्ट हो जाने के पश्चात् इसके समाधान के लिए कार्यक्रमों एवं लक्ष्यों के निर्धारण का कार्य तृतीय चरण में होता है।

संगठन का विकास लक्ष्य निर्धारित करने के पश्चात् इन्हें पूरा करने के लिए आवश्यक संगठन का विकास किया जाता है तथा आवश्यक साधनों को एकत्र किया जाता है ताकि सुधार कार्यक्रमों को लागू किया जा सके।

सुधार का प्रबन्ध सामाजिक समस्याओं के स्वाभाविक विकास का अन्तिम चरण इसके समाधान के लिए सुधार कार्यक्रमों की लागू करना है तथा अगर आवश्यक हो तो इसके लिए अनिवार्य संस्था का विकास करना है। रोबर्ट ए० निस्वेत ने सामाजिक समस्या की उत्पत्ति में चार सहायक कारक बताए है

संस्थाओं में संघर्ष-कई बार अनेक संस्थाओं के उदेखो लक्ष्यों व साधनों में को स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

प्राचीन एवं नवीन संस्थाओं में यह संघर्ष अधिक पाया जाता है क्योंकि प्राचीन संस्थाएं व्यवस्था को स्वरूप बनाए रखने पर बल देती है जबकि नवीन संस्थाएं सामाजिक गतिशीलता पर अधिक बल देती हैं।

सामाजिक गतिशीलता – यह प्रथम कारक से जुड़ा हुआ कारक है। गतिशीलता की सामाजिक समस्याओं को उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका है

क्योंकि गतिशीलता के कारण व्यक्ति को नवीन प्रस्थितियों मूल्यों आदि से काफी संघर्ष करना पड़ता है और कई बार लोग तंग आकर अवैधानिक, अनैतिक व अस्वीकृत तरीकों द्वारा अपनी प्रस्थिति ऊंचा करने का प्रयास करते हैं।

लेखक
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 241
PDF साइज़60 MB
CategoryEducation
Source/Creditsdrive.google.com

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