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संस्कृत व्याकरण – Sanskrit Vyakaran Book PDF Free Download

संस्कृत वर्णमाला
१ – भारतवासी अपनी प्राचीन और पवित्र भाषा को विभिन्न वर्णमालाओं में लिखते हैं, साधारणतया देश के प्रत्येक प्रान्त में उसी वर्णमाला में, जिसका प्रयोग अपनी आधुनिक देशी भाषा के लिए वे करते हैं।
तो भी, आर्य भारत के हृदय- देश अथवा हिन्दुस्तान नाम से ख्यात भू-भाग में जो लेखन प्रणाली प्रचलित है, उसोका व्यवहार यूरोपीय विद्वान् करते हैं। इसे देवनागरी कहते हैं।
अ – इस नाम की व्युत्पत्ति और सारता संदिग्ध है। नागरी ( संभवतः, नगर से सम्बन्धित ) अधिक उपयुक्त नाम है, और देवनागरी देवों अथवा ब्राह्मणों की नागरी है।
२ – भारतीय वर्णमालाओं के इतिहास से सम्बन्ध रखनेवाली बहुत-सी बातें अब भी अस्पष्ट हैं। इस देश में निश्चित तिथि की प्राचीनतम लिखित सामग्रियाँ अशोक या पियदसि के शिलालेख हैं जो लगभग ई० पू० तीसरी सदी के मध्य के है।
ये अक्षरों की दो विभिन्न शैलियों में हैं जिनमें एक सेमेटिक मूल स्रोत के निकलने का स्पष्ट संकेत देती है, जब कि दूसरी भी सम्भवतः, यद्यपि कम स्पष्ट रूप से, उसी मूल से उत्पन्न है।
उत्तरी आर्य भाषाओं तथा दक्षिणी द्राविड़ भाषाओं, दोनों की ही परवर्ती भारतीय वर्णमालाएँ द्वितीय शैली की लठ (गिरिनार में प्रयुक्त ) या दक्षिणी अशोक लिपि से आयी है।
अ – हमारे रोमन और तिरछे टाइप के छोटे रूपों के साथ इनके मिलाने में कठिनाई होने के कारण देवनागरी के वर्णरूपं प्रथम अर्थात् दीर्घतम रूप में ही नीचे प्रयुक्त हैं।
और आधुनिक व्याकरण-शास्त्रों के मान्य प्रचलन के अनुरूप वे, जब कभी प्रयुक्त हुए हैं, क्लारेण्डन वर्णों में लिप्यन्तरित कर दिये गये हैं, जब कि इनका प्रयोग अन्य आकृतियों में हुआ है ।
४ – शिक्षार्थी को सुझाव दिया जाता है कि प्रारम्भ में ही देवनागरी लेखन पद्धति से वह अपने-आपको परिचित कर लेने का प्रयास करे।
साथ ही, जब तक कि शिक्षार्थी प्रधान रूप-निर्देशों का ज्ञान प्राप्त कर पठन, विश्लेषण और पद-भंजन शुरू नहीं कर देता है, तब तक यह अनिवार्य नहीं है कि वह ऐसा करे। बहुतों को तो दूसरी विधि ही अधिक व्यावहारिक जँचेगी और अन्त में समान या अधिक उपयोगी सिद्ध होगी ।
५-देवनागरी वर्णमाला के अक्षर और इनके लिप्यन्तरण में प्रयुक्त यूरोपीय अक्षर निम्नलिखित हैं:
संस्कृत भाषा और साहित्य के सम्यक् अध्ययन के लिए सस्कृत व्याकरण का पूर्ण ज्ञान आवश्यक हो नही वरन् अनिवार्य है।
संस्कृत भाषा मे व्याकरण शास्त्र का जितना और जैसा सूक्ष्म, तर्कपूर्ण एव विस्तृत विवेचन हुआ है उतना और वैसा विवेचन विश्व को किसी अन्य भाषा मे दुर्लभ है।
‘मुख व्याकरण स्मृतम्’ के अनुसार व्याकरण वेद भगवान् का मुख है’ । मुख के विना अन्य अगो का पोपण और परिवर्धन उचित रूप से नहीं हो सकता है ।
वेदो के सम्यक् अध्ययन, उनके अर्थ-बोध और व्याख्या के लिए वेदाङ्गों का ज्ञान आवश्यक बताया गया है। वेदाङ्ग ६ हैं’- १ शिक्षा, २ व्याकरण, ३ छन्द, ४ निरुक्त, ५ ज्योतिष, ६ कल्प |
स्पष्ट है कि सम्यक् वेद-ज्ञान के लिए व्याकरण शास्त्र एक आवश्यक भङ्ग है। व्याकरण शास्त्र की यह महत्ता है कि उसके ज्ञान से शब्द के वास्तविक रूप और उसके अर्थ का यथावत् बोध होता है। इसीलिए व्याकरण के अध्ययन को प्राथमिकता दी गई है।”
पूर्वोक्त सूत्रो को देखने से ज्ञात होगा कि सारी वर्णमाला इन १४ सूत्रों में पाणिनि ने विभक्त की है। इनको शिवसून या माहेश्वर सून कहा जाता है अर्थात् इन्हे शिव ने प्रकट किया है ।
प्रत्येक सूत्र के अन्त में सकेता हमक एक वर्ण लगा हुआ है, इसे ‘इतु’ कहते है। यह वर्णमाला को गणना में नहीं गिना जाता है । ये इत् वर्ण संस्कृत व्याकरण में बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं ।
इनकी सहायता से वैयाकरण बहुत ही सक्षेप में अनेक वर्णो को या वर्णसमूह को सूचित करते हैं।
कोई भी वर्ण इत् अक्षर के साथ मिल कर देवल अपना ही बोध नहीं कराता है, अपितु बोचे में आने वाले सभी वणों का बोध कराता है । जैसे-अणु का अर्थ है अ, इ, उ, इक् का अर्थ है इ, उ, ऋ, ऌ, आदि ।
इसी प्रकार अल् का पारिभाषिक अर्थ है पूरी वर्णमाला, अन् अर्थात् स्वर, हल् अर्थात् व्यंजन, या अर्थात् अन्त स्य, हश् अर्थात् कोमल ध्यजेन या वर्ग के ३, ४, ५, ह और अन्त स्य, सर् अर्थात्
व्यजन या धर्म के १, २ और दश, प, स, जश अर्यात वर्ग के तृतीय वर्ण, शय् अर्थात् य के चतुपं यणं । इन पारिभाषिक शब्दों को ‘प्रत्याहार’ रहते हैं।
लेखक | डॉ. मुनीश्वर झा – Dr. Munishwar Jha, W D Whitney |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 276 |
PDF साइज़ | 16.8 MB |
Category | साहित्य(Literature) |
Sources | archive.org |
हायर संस्कृत ग्रामर- लेखक: मोरेश्वर रामचंद्र काले
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