रोहिणी व्रत कथा | Rohini Vrat Katha PDF In Hindi

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रोहिणी व्रत कथा और रोहिणीव्रतोधापनम् – Rohini Vrat Katha PDF Free Download

सम्पूर्ण रोहिणी जैन व्रत कथा

वन्द्रं श्री अर्हन्त पद, मन वच शीश नमाय ।

कहूँ रोहिणी व्रत कथा, दुःख दारिद्र नश जाय ॥

अंग देशमें चम्पापुरी नाम नगरीका स्वामी माधया नाम् राजा था। उसकी परम सुन्दरी लक्ष्मीमती नामकी रानी थी। उसके सात गुणवान पुत्र और एक रोहिणी नाम की कन्या थी।

एक समय राजाने निमित्तज्ञानीसे पूछा कि मेरी पुत्रीका वर कौन होगा ? तब निमित्तझानी विचार कर कहा कि हस्तिनापुरका राजा वातशोक और उसकी रानी विद्युतश्रवाका शुत्र अशोक तेरी पुत्रीके साथ पाणिग्रहण करेगा।

यह सुनकर राजाने स्वयंवर मण्डप रचाया और सब देशोंके राजकुमारको आमंत्रण पत्र भेजे।

जब नियत समय पर राजकुमारगण एकत्रित हुए तो कन्या रोहिणी एक सुन्दर पुष्पमाला लिये हुए सभामें आई और सब राजकुमारोंका परिचय पानेके अनन्तर अंतमें राजकुमार अशोकके गलेमें वरमाला डाल दी।

राजकुमार अशोक रोहिणीसे पाणिग्रहण कर उसे घर ले आया और कितनेक काल तक सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया।

एक समय हस्तिनापुरके वनमें श्री चारण मुनिराज आये। यह समाचार सुनकर राजा निज प्रिया सहित श्री गुरुकी वंदनाको गया, और तीन प्रदक्षिणा दे दण्डवत करके बैठ गया।

पश्चात् श्री गुरुके मुखसे तत्त्वोपदेश सुनकर राजा हर्षित भन हो पूछने लगा-स्वामी! मेरी रानी इतनी शांतचित क्यों है ?

तब श्री गुरुने कहा-सुनो, इसी नगरमें वस्तुपाल नामका राजा था और उसका धनमित्र नामका मित्र था। उस धनमित्र के दुर्गन्धा कन्या उत्पन्न हुई। सो उस कन्याको देखकर माता पिता निरन्तर चिंतावान रहते थे कि इस कन्याको कौन वरेगा?

पश्चात् जब यह कन्या सयानी हुई तय धनमित्रने उसका ब्याह धनका लोभ देकर एक श्रीषेण नामके लडके (जो कि उसके मित्र सुमित्रका पुत्र था) से कर दिया।

यह सुमित्रका पुत्र श्रीषेण अत्यन्त व्यसनासक्त था। एक समय वह जुआमें सब धन हार गया, तब चोरी करनेको किसी के घरमें घूसा। उसे यमदण्ड नाम कोतवालने पकड़ लिया और दृढ बन्धनसे बांध दिया।

इसी कठिन अवसरमें धनमित्रने श्रीषेणसे अपनी पुत्रीके ब्याह करनेका वचन ले लिया था। इसीलिए श्रीषेणने उससे ब्याह तो कर लिया, परंतु वह स्वस्त्रीके शरीरकी अत्यन्त दुर्गन्धसे पीडित होकर एक ही मासमें उसे परित्याग करके देशांतरको चला गया। निदान यह दुर्गन्धा अत्यन्त व्याकुल हुई और अपने पूर्व पापोंका फल भोगने लगी।

इसी समय अमृतसेन नामके मुनिराज इसी नगरके वनमें विहार करते हुए आये। यह जानकर सकल नगरलोक यन्दनाको गये और धनमित्र भी अपनी दुर्गन्धा कन्या सहित वन्दनाको गया। सो धर्मोपदेश सुननेके अनन्तर उसने अपनी पुत्रीके भवांतर पूछे तब श्री गुरुने कहा

सोरठ देशमें गिरनार पर्वत के निकट एक नगर है। वहां भूपाल नामक राजा राज्य करता था। उसके सिन्धुमती नाम की रानी थी। एक समय वसन्तऋतुमें राजा रानी सहित वनक्रीडाको चला सो मार्गमें श्री मुनिराजको देखकर राजाने रानीसे कहा कि तुम घर जाकर श्री गुरुके आहारकी विधि लगाओ।

राजाझासे यद्यपि रानी घर तो गई तथापि वनक्रीडा समय वियोग जनित संतापसे तप्त उस रानीने इस वियोगका सम्पूर्ण अपराध मुनिराजके माथे मढ़ दिया, और जब ये आहारको वस्तीमें आये तो पडगाहकर कडुवी तुम्बीका आहार दिया, जिससे मुनिराजके शरीरमें अत्यन्त वेदना उत्पन्न हो गई, और उन्होंने तत्काल प्राण त्याग कर दिये।

नगरके लोग यह वार्ता सुनकर आये, और मुनिराजके मृतक शरीरकी अंतिम क्रिया कर रानीकी इस दृष्कृत्यकी निन्दा करते हुए निज निज स्थानको चले गये। राजाको भी इस दृष्कृत्यकी खबर लग गई तो उन्होंने रानीको तुरन्त ही नगर से बाहर निकाल दिया।

इस पापसे रानीके शरीरमें उसी जन्ममें कोढ़ उत्पन्न हो गया, जिससे शरीर गल गलकर गिरने लगा तथा शीत, उष्ण

और भूख प्यासकी वेदनासे उसका चित्त विह्वल रहने लगा। इस प्रकार वह रौद्र भावोंसे मरकर नर्कमें गई। वहांपर भी मारन, ताड़न, छेदन, भेदन, शूलीरोहणादि घोरान्घोर दुःख भोगे। वहांसे निकलकर गायके पेटमें अवतार लिया और अब यह तेरे घर दुर्गन्धा कन्या हुई है।

यह पूर्व वृत्तांत सुनकर धनमित्रने पूछा-हे नाथ! कोई व्रत विधानादि धर्म कार्य बताइये जिससे यह पातक दूर होवे, तब स्वामीने कहा-सम्यग्दर्शन सहित रोहिणीव्रत पालन करो, अर्थात् प्रति मासमें रोहिणी नामका नक्षत्र जिस दिन होये, उस दिन चारो प्रकारके आहारका ध्यारे और श्री जिन चैत्यालयमें जाकर धर्मध्यान सहित सोलह पहर व्यतीत करे अर्थात् सामायिक, स्वाध्याय, धर्मचर्चा, पूजा, अभिषेकादिमें काल बितावे और स्वशक्ति अनुसार दान करे।

इस प्रकार यह व्रत ५ वर्ष और ५ मास तक करे। पश्चात् उद्यापन करे। अर्थात् छत्र, चमर, ध्वजा, पाटला आदि उपकरण मंदिरमें चढाये, साधुजनों व साधर्मी तथा विद्यार्थियोंको शास्त्र देवे, वेष्टन देवे, चारो प्रकारके दान देवे और जो द्रव्य खर्च करनेकी शक्ति न हो तो दूना व्रत करे।

दुर्गन्धाने मुनिश्रीके मुखसे व्रतकी विधि सुनकर श्रद्धापूर्वक उसे धारण कर पालन किया, और आयुके अन्तमें सन्यास सहित भरण कर प्रथम स्वर्गमें देवी हुई यहांसे आकर मधवा राजाकी पुत्री और तेरी परमप्रिया स्त्री हुई है।

इस प्रकार रानीके भवांतर सुनकर राजाने अपने भवांतर पूछे तब स्वामीने कहा- तू प्रथम भवमें भील था। तूने मुनिराजको घोर उपसर्ग किया था। सो तू वहांसे मरकर पापके फलसे

सातवें नर्क गया। वहांसे तेतीस सागर दुःख भोगकर निकला। सो अनेक कुयोनियों में भ्रमण करता हुआ तूने एक वणिकके घर जन्म लिया। सो अत्यन्त घृणित शरीर पाया। लोग दुर्गन्धके मारे तेरे पास न आते थे।

तब तूने मुनिराजके उपदेशसे रोहिणीव्रत किया, उसके फलसे तू स्वर्गमें देव हुआ। और फिर वहांसे चयकर विदेह क्षेत्रमें अर्ककीर्ति चक्रवर्ती हुआ वहांसे दीक्षा ले तप करके देवेन्द्र और स्वर्गसे आकर तू अशोक नामक राजा हुआ है। हुआ।

राजा अशोक यह वृत्तांत सुनकर घर आया और कुछ कालतक सानन्द राज्य भोगा| पश्चात् एक दिन वहां वासुपूज्य भगवानका समदशरण आया सुनकर राजा वन्दना को गया और धर्मोपदेश सुनकर अत्यन्त वैराग्यको प्राप्त हो श्री जिन दीक्षा ली। रोहिणी रानीने भी दीक्षा ग्रहण की।

सो राजा अशोकने तो उसी भवमें शुक्लध्यानसे घातिया कर्मोका नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त किया और मोक्ष गये और रोहिणी आर्या भी समाधिमरण कर स्त्रीलिंग छेद स्वर्गमें देय हुई।

अब यह देव वहांसे घयकर मोक्ष प्रारू करेगा। इस प्रकार राजा अशोक और रानी रोहिणी, रोहिणीव्रतके प्रभावसे स्वर्गादिके सुख भोगकर मोक्षको प्राप्त हुए व होंगे इसी प्रकार अन्य भव्य जीव भी श्रद्धासहित यह व्रत पालेंगे वे भी उत्तमोत्तम सुख पावेंगे।

व्रत रोहिणी रोहिणी कियो, अरु अशोक भूपाल।

स्वर्ग मोक्ष सम्पति लही, ‘दीप’ नवावत भाल ॥

रोहिणी व्रत की पूजा विधि (Rohini Vrat Puja Vidhi)

  • इस दिन सुबह जल्दी उठना चाहिए।
  • सभी नित्यकर्मों से निवृत्त होकर स्नानादि कर लें।
  • इस दौरान भगवान वासुपूज्य की अराधना की जाती है।
  • उनकी पंचरत्न, ताम्र या स्वर्ण की मूर्ति की स्थापना करनी चाहिए।
  • पूजा के बाद उन्हें फल-फूल, वस्त्र और नैवेद्य का भोग लगाना चाहिए।
  • इस दिन अपने सामर्थ्यनुसार गरीबों को दान करना चाहिए। इसका महत्व बहुत ज्यादा होता है।
  • इस व्रत के लिए उचित अवधि 5 महीने या फिर 5 साल मानी गई है।
  • छत्र, चमर, ध्वजा, पाटला आदि उपकरण मंदिरमें चढाये,
  • साधुजनों व साधर्मी तथा विद्यार्थियोंको शास्त्र देवे, वेष्टन देवे,
  • चारो प्रकारके दान देवे और जो द्रव्य खर्च करनेकी शक्ति न हो तो दूना व्रत करे।
लेखक पन्नालाल जैन-Pannalal Jain
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 92
PDF साइज़1.1 MB
CategoryVrat Katha
Source/Creditsarchive.org

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