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प्रसुप्त चेतना का अभिवनव जागरण – Abhivanav Jagran Of Dormant Consciousness PDF Free Download
पुरातन और अर्वाचीन अन्तर का कारण
शरीर और प्राण मिलकर जीवन बनता है। इनदोनों में से एक भी विलग हो जाय तो जीवन का अन्त ही समझना चाहिए। गाड़ी के दो पहिये ही मिलकर संतुलन बनाते और उसे गति देते हैं।
इनमें से एक को भी टूटा फूटा अस्त व्यस्त नहीं होना चाहिए । अन्यथा प्राण को भूत प्रेत की तरह अध्य रूप से आकाश में, लोक लोकान्तरों में परिभ्रमण करना पड़ेगा।
शरीर की कोई अन्त्येष्टि न करेगा तो यह स्वयं ही सड़गल जायेगा । दैनिक अनुभव में शरीर ही जाता है। आत्मा को उसी के साथ गुरूंथा रहना पड़ता है। इसका प्रतिफल यह होता है
आत्मा अपने आपको शरीर ही समझने लगती हैं और इसकी आवश्यकताओं से लेकर इच्छाओं तक को पूरा करने के लिए संलग्न रहती है । दूसरा पक्ष चेतना का, आत्मा का रह जाता है।
उसके प्रत्यक्ष न होने के कारण प्रायः ध्यान ही नहीं जाता । फलतः ऐसा कुछ सोचते-करते नहीं बन पड़ता जो आत्मा की समर्थता एवं प्रखरता के निमित्त आवश्यक है।
यह पक्ष उपेक्षित बना रहने पर अर्धांग, पक्षाघात पीड़ित जसी स्थिति बन जाती है। जीवन का स्वरूप और चिन्तन कर्तृत्व सभी में उद्देश्य हीनता घुस पड़ती है।
जीवन प्रवाह कीट पतंगों जैसा, पशु पक्षियों जैसा बन जाता है। उससे पेट प्रजनन की ही ललक छाई रहती है। जो कुछ बन पड़ता है, वह शरीर के निमित इन्हीं ललक लिप्साओं को भव बन्धन कहते हैं।
इसी से जकड़ा हुआ प्राणी हथकड़ी बेड़ी तक पहने हुए बन्दी की तरह जेल-खाने की सीमित परिधि में मौत के दिन पूरे करता रहता है । इन परिस्थितियों में संकीर्ण स्वार्थ परता की पूर्ति ही लक्ष्य बन जाता है।
लेखक | श्री राम शर्मा-Shri Ram Sharma |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 33 |
Pdf साइज़ | 16 MB |
Category | साहित्य(Literature) |
प्रसुप्त चेतना का अभिवनव जागरण – Abhivanav Jagran Of Dormant Consciousness PDF Free Download