माया तंत्र | Maya Tantra PDF In Hindi

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माया तंत्र संस्कृत हिंदी अनुवाद – Maya Tantra PDF Free Download

माया तंत्र

तदा वटदलं भूत्वा तोयान्तः समवस्थितम् ।

ततो नारायणं देवं सा दधार स्वलीलया ॥4॥

अतः जब सर्वत्र जल ही जल था तब उस परमपिता परमेश्वर ब्रह्म अल्लाह गौड ने सृष्टि रचना अर्थात् संसार का निर्माण करने के लिए अपनी प्रकृति (माया) को याद किया तथा जब उन्हें सृष्टि करने की इच्छा हुई तभी याद किया।

इससे यह भी सिद्ध होता है कि ऐसा वे पहले से सोच चुके थे। तब उसके बाद उस माया (प्रकृति) देवी ने वटदल बनकर जल मध्य स्थित उन परमेश्वर (नारायण) को अपनी लीला से धारण कर लिया।॥4॥

विशेष:-यहाँ पर अत्यन्त मार्मिक तथ्य पर प्रकाश डाला गया है। यहाँ वट दल (वट वृक्ष की शाखायें और पत्तों) को कहा जाता है। वट वृक्ष जल में वनस्पति की उत्पत्ति का प्रतीक है।

अतः यहाँ वैज्ञानिक रहस्य का उद्घाटन किया गया है, जैसा कि वैज्ञानिकों का कहना है कि पहले जल ही जल था, फिर इसमें काई पैदा हुई, उसमें एक कीट पैदा हुआ,

जिसे बिना हड्डी पसली का अमीवा कहा जाता है, फिर उसी से धीरे-धीरे मत्स्यादि के क्रम से मनुष्य रूप बना।

अर्थात् अमीवा नामक बिना हड्डी-पसली (Without cell) के जीव से अनेकों प्रकार से जीवों में बदलते हुए मत्स्य रूप आया जिसे मत्स्यावतार कहा जाता है।

मत्स्य के बाद अनेकों गल जीवों के रूप में आते हुए जल और थल पर विचरण करने वाले कछुआ के रूप में जीयोत्पत्ति हुई, “जिसे कच्छप अवतार कहा गया है।

बाद में अनेकों जीवों के रूप में विकसित होता हुआ वराह (सुअर) रूप हुआ, तब बन्दर आदि के बाद मनुष्य रूप में जीव का विकास हुआ।

इस प्रकार 84 लाख योनियों के रूप में घूमते हुए यह जीव मानव रूप में आया। यह हमारा पौराणिक जीव विकास है, जो डारविन महोदय के विकासवाद के सिद्धान्त से पूर्णतः मेल खाता है।

विज्ञान ने जिसे आज सिद्ध किया है। यह भारतीय ग्रन्थों में बहुत पहले ही बताया जा चुका है। कहना होगा कि जल में वनस्पति से जीव की उत्पत्ति है।

अतः यहाँ वट वृक्ष वनस्पति का प्रतीक है।अत: यह वट वृक्ष ईश्वर का आधार हुआ। ईश्वर यहाँ पर विष्णु को मान सकते हैं। अतः वे विष्णु ब्रह्म अल्लाह खुदा ईश्वर गौड तो रहे होंगे,

परन्तु वे निराधार होंगे; परन्तु उन्होंने अपने आधार के लिए प्रकृति माया का स्मरण किया और उस माया ने वटवृक्ष बनकर उन विष्णु अर्थात् जीव को आश्रय दिया।

इसका भाव है कि सर्व प्रथम जीव (जीवनी शक्ति) वनस्पति में उत्पन्न हुई। यह वैज्ञानिक तथ्य है। कहीं-कहीं वट वृक्ष के स्थान पर कमल कहा गया है।

जल से कमल, कमल से ब्रह्मा, ब्रह्मा से संसार ऐसा तो वेदादि शास्त्रों में बहुत पहले से कहा जाता रहा है। यहाँ श्लोक में माया ने नारायण को अपनी लीला से धारण कर लिया।

इस कथन में गूढ़ वैज्ञानिक रहस्य भरा पड़ा है; क्योंकि नारायण शब्द का अर्थ है नार+अयन अर्थात् नार शब्द का अर्थ है-जल, अयन का अर्थ है घर (निवास स्थान) अतः नारायण का अर्थ हुआ जल, घर है,

जिनका, अर्थात् भगवान विष्णु। ऐसे यदि सोचा जाये तो विष्णु जीवनीय तत्त्व है, जिसे जीव कहा जाये तो अन्यथा नहीं है।

तब नारायण का अर्थ हुआ-नार है घर जिसका अर्थात् जल है घर जिसका, इससे यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि जीव (विष्णु) का घर जल है।

इसीलिए तो यह कहा जाता है कि जल ही जीवन है। ऐसे भी वैज्ञानिक तथ्य है कि जल का सूत्र है HO अर्थात् जल हाइड्रोजन और आक्सीजन का मिश्रण है।

आक्सीजन ही जीवन है, जो जल में है; क्योंकि आक्सीजन से ही समस्त जीव-जन्तु स्थित रहते हैं, अगर ऑक्सीजन नहीं हो तो पेड़-पौधे जीव-अन्तु मनुष्यादि सभी नष्ट हो जायेंगे।

तन्त्र की प्राच्चीनता–तन्त्र शब्द के व्यवहार को देखते हुए यह कहना मिथ्या न होगा कि तन्‍्त्र प्राचीन तो है, परन्तु बंदों से प्राचीन नहीं हैँ, क्योंकि प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में तन्त्र करधे के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

अष्टाध्यायी, महाभाष्य, याज्ञवल्क्य स्मृति /228, कोटिल्य अर्थशास्त्र, चरक, बृहस्पति आदि ने तन्त्र का अर्थ युक्ति या सिद्धान्त माना है। वाद में अथर्ववेद में और प्रायः अधिकांश पुराणों में तन्त्रविद्या का परिचय प्राप्त होता है। अतः तन्त्रविद्या अधिक प्राचीन नहीं हैं।

रुद्रयामल तन्त्र में कहा गया हैं कि यह महाविद्या वशिष्ठ ऋषि के समक्ष प्रकट हुई थी। उसने इसे जानने के लिये वशिष्ठ से बुद्ध के पास चीन देश जाने को कहा।

यही नहीं, यह भी कहा कि उस बोद्ध देश चीन को जाओ, जहाँ अथर्ववेद भी है तथा उन्होंने वहाँ पञ्ममकारों के उपयोग का निर्देश भी दिया। (रुद्रयामल तन्त्र, पटल 7, श्लोक 2-23, 25, 35, 52-53, 57-58, 60-6)।

इससे तो यह भी सिद्ध होता है कि यन्त्र-तन्त्र-मन्त्र विद्या का उत्तम ग्न्थ अथर्ववेद चीन से लाया गया अथवा चीन देश में महात्मा बुद्ध द्वारा ले जाया गया हो, फिर बाद में लाया गया हैं। वैसे ऐन्द्रजालिक विद्या के रूप में “वेदों” में इसकी चर्चा मिलती है, परन्तु जादू-टोना के रूप में इसकी निन्‍दा की गई हैं।

अथर्ववेद में वशीकरण और रोगोत्पादक कीड़ों को नष्ट करने वाले मन्त्र मिलते हैं (अ0 3३/25 तथा 2/30)। विन्टरनित्ज के अनुसार पाँचवीं-छठी शताब्दी पूर्व भी तन्त्र साहित्य की उत्पत्ति हुई होगी।

एल0 वेगर के अनुसार सातवीं शती में ही चीनी अनुवाद हुए थे, तन्‍्ह्रों में दुर्गापजा का बहुत महत्त्व है। यह दुर्गा परवर्त्ती वैदिक काल की देवी है। तन्त्रों के अनेक तत्त्व अथर्ववेद ब्राह्मण ग्रन्थों एवं उपनिषदों में भी प्राप्त होते हैं।

पुराणों में स्कन्दपुराण, पद्मपुराण, कालिकापुराण, ब्रह्मवेवर्तपुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि में तन्त्रों का वर्णन मिलता है। यही नहीं, महाभारत में भी तन्‍्त्रों का वर्णन उपलब्ध होता है। विन्टरनित्ज महोदय का दृष्टिकोण तन्‍्त्रविरोधी प्रतीत होता है।

वे पुराणों और तन्त्रों को हीन कोटि के लेखकों की कृतियाँ मानते हैं। महर्षि “दयानन्द सरस्वती ने तो पुराणों और तन्त्रग्नन्थों को पाखण्डियों के ग्रन्थ कहा है, परन्तु यदि गम्भीरतापूर्वक देखा जाये तो वास्तव में पुराण और समस्त तन्त्रग्रन्थ -पाखण्डियों की रचनायें हैं

लेखक
भाषा हिन्दी, संस्कृत
कुल पृष्ठ 128
PDF साइज़132.2 MB
CategoryAstrology

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