मनुस्मृति सटीक | Manusmruti Satik PDF In Hindi

मनुस्मृति सटीक – Manusmruti Satik Pdf eBook Free Download

पुस्तक के कुछ मशिनी अंश

तपसा सुवर्णस्तयज मलं अपनुनुन्सुः द्विजः चीरवासाः सन् अरये प्रधहणः बूर्त चरेद् भा० । सुवर्ण की चोरी के दोपको दूरकरनेकी वांछाकरताहुपा द्विज चीरवस्त्रोंको धारणकर औौर वनमें वसकर ब्रह्महत्या का प्रायश्चित करे ॥

ता। सुवर्णकी चोरीसे उत्पन्न हुये पापको दूरकरनेकी इच्छा करता हुमा हिज-वीर(जाणीवब्बों को धारणकरके उस व्रत को वनमें करै जो ब्रद्य हत्यारों को कहा है-

और यह ब्रत द्वादश १२ वर्षपपैत करना कहाहै और यह प्रायश्चित ब्राह्मणों के स्वर्ण की चोरीका है क्योंकि इसमें क्लेश अधिक है और क्षत्रिय भादिकोंको तो इस पाप का प्रायश्चित मरण भी कहा है-और सुवर्ण का प्रमाण।

इसे वचन के अनुसार यह होताहै कि पांच कृष्ण का एकमाष और सालह मापोंका एक सुवर्ण होताहै और इससे न्यून (कम) प्रमाण का ग्रहण नहीं है क्योंकि परिमाण के अनुसार मनुके परिमाण का ग्रहण वक्त है और

जो भविष्यपुराण में अधिक परिमाण इस वचनसे वर्णन किया है कि यदि निर्गुण क्षत्रिय भाई तीनों वर्ण गुणवान ब्राह्मण के पांच अथवा एकादश ११॥

निष्कोंकी चोरीकरें तो अग्निमें भपने देहका दग्धकरकें शुद्धहातेहैं भौर मात्माकी शुद्धिके लिये इस व्रत को करें-वह भविष्य पुराणका प्रायश्चित उतनेही प्रमाण सुवर्ण की चोरीका समझना जितना भविष्य पुराण में कहा है-और सुवर्ण रूप प्रमाण जारी में नहीं १०१॥

तामानुषीसे भिन्न (घोडी भादि) में भौर रजस्वला में भौर योनिसे भिन्नमें-और जल में मनुष्य वीर्य को सींचकर सांतपन रुब्छूकरै-यटां मानुपीसे भिन्न बोडी भादि का ग्रहण है और गौ का नहीं

क्योंकि गौमोंमें वीर्य सींचनेका प्रायश्चित्त इस वचनसे शंखलिखितने गुरु (अधिक) कहाहै कि गौंमें वीर्य को सींचनेवाला एक वर्ष पर्यंत प्राजापत्य व्रतकरै १७३ ॥

मैथुनंतुसमासेव्यपुंसियोषितिवाहिजः । गांगानेऽस्मुदिवाचैवसवासाःस्नानमाचरेद् १७४॥ प० । मैथुनं तु समासेव्यै पुंसिं योषिति वाँ ह्विजेः गोयाने अप्मुँ दिवाँ चँ एवँ सवासीः स्नौनं आचरेत् ॥ यो । द्विज. युसि वा योषिति-गीयाने अप्स -चपुनः दिवा मैथुनं समा सेव्य सवासा. स्नानं आचरेत् सचैलंस्ना- नं कुर्यात् ॥

प्रकटहों कि यहे पुस्तक अऔीमदभगवदगीता सकल निगम पुराण स्म्रति सांख्यादि सारभूत परमरहस्यगीताशास्यका सब्वैविदधानिधान सौशील्य विनयोदारस्य सत्यसंगर शोय्यीविगुण संपन्न मनरावतार महानुभाव भजुनको परम अधिकारी जानके हूदय जनित मोहनाशार्थ सबप्रकार अपार संसार निस्तारक भगवदभक्तिमार्ग हृष्टिगोचर कराया है

वही उक्तनगवढगीता बज़वतवेदांत व योगशाखान्तर्गत जिसको अच्छे २ शाखवेत्तार भपनी बुद्धिसे पारनहीपासक्ते तब मंदबुद्धों जिनको कि फ़ेवल देशभाषाही पठन पाठन करने की सामर्थ्य है वह कब इसके अन्तराभिप्रायको जानसके दैंओर यह प्रत्यक्षद्वी है कि जबतक किसी पुस्तक भपवा किसी बस्तुका अन्तराभिप्राय भच्छेप्रकार बुद्धिसे न भासितहों तबसक भझानन्द क्योंकर मिले इसप्रकार संपर्ण भारतनिवासी

श्रीमद्भगवत्पाव्राब्जरसिकजनों के चित्तानन्वार्थ व बुढ्धिबोधार्त्थ सन्‍तत परम्भधुरीण सकलकलाचातुरीण सर्व्य विद्याविलासी भगवद्भक्तथनुरागी श्रीमान्मुन्शीनवलकिशोरजी ( सी, भाई, है ) ने बहुतसा धन ब्ययकर फर्रुखाबाद निवासि स्वर्गवासि पणिडत उसादत्तजी से इसमनोरंजन वेदवेदांतशास्त्रोपरि पुस्तकको

श्रीशंकराचास्थ निर्मित भाष्यानुसार संस्कताले सरलदेशभाषामें तिलकरचाय नवल भाष्य आख्य से प्रभातकाखिक कसलसरिस प्रफुल्लित कराद़िया है कि जिसको भाषामात्रके जाननेवाले पुरुष भी जानसक्ते हैं ॥

जबछपनेका समयझाया तो बहुतले विदृज्जन महात्माओं की सम्साति से यह विचारहुआ कि इस अमल्य व अपवर्व थन्‍्धकी भाष्यमें अधिकतर उ तन्नता उसलमयपरहागी कि इसशंकराचार्स्य रत भाष्य भाषाकेसाथ भोर इस यन्पके टीकाकारोंकी टका भी जितनीमिलें शामिलकीजावदें जिसमें उन टीकाकारों के अभिप्रायका भी बोधहोवे इसकारणले भ्रीस्वामी झकराचास्वै्ज़ीकी शैेकरभाष्य का तिलक व भ्रीभानन्दगिरिकृत तिलक अभरु श्रीधरस्वामिरुत तिलकभी मल इलोकों सहित इसपुस्तकरमें उपस्थितहे ॥

भाचाराध्याय नामक प्रथम खेडमें गर्भाधान से लेकर मरण पर्यनत के समस्त संस्कार चतु4एणों भौर विविध जातियोंकी उत्पात ब्राह्मण आदि चतुर्वणों और ब्रह्मचर्यादि चतुराश्रमोक्रेधर्मा चरण. साधारण शिक्षा, आठप्रकारक विवाहोंके लक्षण, भक्ष्याभक्ष्य पदार्थोका विवेक, दान लेने देनेकी विधि, सर्वप्रकारके भ्रादोकानिर्णय, नवग्रहोंकीशांति राजाझेंके धर्म आचारादि झनेकावेषय विस्तारपर्वक वर्णेन कियेगयेहें ॥

भावार्थ । सुखसे स्वस्थवित्त बेठेहुये मनु को सनन्‍्मुख्वजाकर और क्रिया है अपना (ऋषियोंका) पजन जिसने ऐसे मनुका पूजन करके न्याय ( नमस्कार भक्ति श्रद्धाआदि ) से सम्पर्ण बढ़े २ ऋषि यह वचन (जो आग्रेम इलोकमें कहेंगे) बोले ५ कि हेभगवन्‌ इस दाब्दकाअर्थ यहददे कि हेभग (सम्पर्ण ऐश्वस्य, वीस्यि, यश, लक्ष्मी, ज्ञान, वेराग्य इन छः को भग कहते हें) वाले सम्पूर्ण वर्णों के अर्थात्‌ ब्राह्मण क्षत्रिय वेश्य शूद्रोके और उनके अन्तरप्रभव गर्थात्‌ अनुलॉमज ( उचे वर्ण के पुरुष से नीचेव्ण की कन्या में जो पैदाहों) भौर प्रातिलोम जो (नीचेवणक पुरुषसे जो ऊंचे वर्णकी कन्यामें पैदाहोके) अर्थात्‌ अम्बछ् क्षठृकर्ण आदिकों के येविजातीय मैथुनसे पैदाहुये हें इससे घोडे और गधीके सम्बन्ध से पेदाहुई खीचर के समान अन्यही जाति हैं इसहेतु वर्णो में न झाने से ऋषियोंने इनका एथक्‌ नाम लेकर इनके घर्मको एथक्‌ पंछा इसीले यहशासत्र सबका उपकारकरै यथायोग्य धम्मोंकों हमारेप्राति क्रमसे (जातकरम्म नासमकम्स आदि) आप कहनेको योग्यहों भथवा जिससे तुम कहनेयोग्य हो इससे हमारे प्रति कहों-झर इस अन्धमें जो ब्रह्महत्यादि रूप भधर्मका वर्णन है वह भी प्रायरिचत्तके विधान ( करने ) रूप धर्मक विपय होने से किया है स्वतन्त्रतासे नहीं किया ॥ तात्पथ्योर्थ ।

यहां इलोक की आदि में जो मनुका निर्देशहे सो मंगलके लियेह क्योंकि साक्षात्‌ परमात्माही संसार की पालना के लिये सब्वैज्ञता ओर ऐश्वर्य्यसे युक्त होकर मनुरुप से प्रकटभये हें ऐसे इंश्वर का नाम लेना अतीव मंगल है क्योंकि आगे कहेंगे भी कि कोई ऋषि इस सनु को आग्ने कहते हैं और कोई प्रजापाति–सम्पर्ण वेद के अर्थ के मनन (विचार) से मनु कहते हैं ५ ॥

भगवन्सवंबर्णानां यथावदनुपृवंशः । अन्तरप्रभवाणां च धर्मान्नोवक्तमहंसि २ भगवन्‌ सर्वेवणीनाम्‌ यथावत्त्‌ अनुपूर्वशी: अन्तरप्रभवाणामर वें माने नें: बैंक अहोसि ॥ सौ!» । हे भगवन्‌ सब्बवणानां पुनः अन्तरप्रभब्राणां च अनपवशः यथावत्‌ धर्मान न अस्मस्यं)वक्क स्व॑ अहहासे | भा० ।

हे भगवन्‌ सम्पूर्ण वणों आर अन्तरप्रभव (अनुलांम ओर प्रतिलोमों के) क्रमसे यथोचित धर्मोकों हमारे लिये आप कहने योग्य हो ॥

लेखक पंडित महिंद्राचंद्र शर्मा-Pandit Mahindrachandra Sharma
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 894
Pdf की साइज़ 75 MB
Category साहित्य(Literature)

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