ज्ञान का सागर | Gyan Ka Sagar Book/Pustak PDF Free Download

पुस्तक का एक मशीनी अंश
महाराज कहते हैं कि ऐसे प्रभु को छोड़ कर हे मनुष्य और कहाँ जा रहा है, जो प्रभु दया का भंडार है, जिसकी दया कभी खत्म नहीं होती। आम मनुष्य किसी समय दयालु होता है,
किसी समय कठोर होता है। किसी समय उसकी देने की सोच होती है, किसी समय छीनने की सोच होती है। मनुष्य का पूरा जीवन दो रंगों में व्यतीत होता है,
कभी दया में, कभी कठोरता में मनुष्य की दया एक तालाब से ज्यादा नहीं है। महाराज कहते हैं, प्रभु की दया तो सागर है, खत्म नहीं होती। गुरमति राज-योग का मार्ग है,
राज-भाग खड़ा है दो पदार्थों पर योग भी खड़ा है दो पदार्थों पर। वह दो पदार्थ हों, राज चलता हैं और दो पदार्थोंों से ही योग चलता है। राज संसार के पूरे सुख,
योग परमात्मा का आनन्द, नाम का आनन्द। ऐसा देखने में आया है कि कोई मनुष्य बाहर से मालामाल है पर अंदर से वह कंगाल है। कारण? दो पदार्थ बाहर के इसके पास है,
अंदर के कोई नहीं। ऐसा भी देखने में आया है कि दो पदार्थ अंदर के तो हैं, पर बाहर से बिल्कुल कंगाल है। बाहर की पूर्ति के लिए उनकी भिक्षा मांगनी पड़ी।
पूरी दुनिया में उस तरह के योगी मौजूद हैं, दो पदार्थ थे, दो नहीं थे। बाहर के दो पदार्थ न हों तो भिक्षा मांग कर निर्वाह करना पड़ेगा। अंदर के दो पदार्थ नहीं हैं तो जीवन भर मानसिक पीड़ा में रहेगा क्लेश में रहेगा।
यह मालामाल होकर भी कंगाल ही रहेगा। यह ठीक है, ऐसा विद्वान कहते हैं कि जो अंदर से मालामाल है, अगर बाहर से कंगाल भी है, जिन्दगी चल जाती है। गुरु अर्जुन देव जी महाराज यूं कहते हैं।
लेखक | संत मसकीन-Sant Maskin |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 129 |
Pdf साइज़ | 4.1 MB |
Category | साहित्य(Literature) |
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