गौतम बुद्धा का जीवन – Mahamanav Buddha Book/Pustak Pdf Free Download

जीवनी
गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में लुंबिनी (वर्तमान नेपाल) में हुआ था। उनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ गौतम था और वे शाक्य वंश के राजा शुद्धोधन के पुत्र थे। बचपन से ही वे विलासिता में पले-बढ़े, लेकिन जीवन के दुखों को देखकर उन्होंने राजमहल छोड़ दिया और सत्य की खोज में निकल पड़े।
उन्होंने वर्षों तक कठोर तपस्या की और अंततः बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर ज्ञान प्राप्त किया। इसके बाद वे गौतम बुद्ध कहलाए और उन्होंने संसार को अहिंसा, करुणा, और मध्यम मार्ग का उपदेश दिया।
बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया, जिसे “धर्मचक्र प्रवर्तन” कहा जाता है। उन्होंने संपूर्ण जीवन लोगों को सत्य, अहिंसा और निर्वाण के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी। 483 ईसा पूर्व में कुशीनगर में उनका महापरिनिर्वाण हुआ। उनका जीवन और उपदेश आज भी करोड़ों लोगों को प्रेरित करते हैं।
बुद्ध ने अपनी दार्शनिक विचार-धारा को समझाते हुए सत्य के दो रूप बतलाये हैं। एक सत्य वह है, जो गहराई में जाने पर चाहे ठीक न उतरता हो, पर व्यवहार के लिये वह पर्याप्त है इसे व्यवहार सत्य या संवृति-सत्य कहते हैं ।
पत्थर, लोहा, काष्ठ को जिस रूप में हम देखते हैं, और उनसे उपयोग लेते हैं, यह संवृति सत्य हैं।
पर, परमार्थ सत्य की दृष्टि से देखने पर यह मानना पड़ेगा, कि यह सब नेत्रों से न दिखाई देने वाले परमाणुओं से मिल कर बनी हैं परमाणु भी ठोस चीज़ नहीं है, वह भी विद्युत्कण, नाभिकण के योग हैं।
विद्यु तकण ऐसी वस्तु है, कि जो एक स्थान पर क्षण भर के लिये भी नहीं टिकती । वैज्ञानिक उसे कण और तरंग दोनों कहते हैं। ऐसे भंगर कण हैं, जो अपनी ऐसी परम्परा या धारा छोडते हैं, जिसको तरंग कहेंगे ।
यही बात नाभिकण के भीतर के पॉज़िट्रान, न्यूट्रान, मेसोट्रोन के बारे में भी है । अर्थात् विश्व की आधारिक टे परमा- गुयों से भी सूक्ष्म, अतीन्द्रिय, भंगुर, प्रवाह की तरह चलायमान हैं।
इसे परमार्थ सत्य मानने पर फिर पत्थर, लोहा, काष्ठ के जिस रूप को हम सत्य माने हुये हैं, यह सत्य नहीं ठहरता ।
इस प्रकार आधुनिक विचार-शैली में भी हमें व्यवहार-सत्य और परमार्थ सत्य का भेद रखना पड़ता है इसी भेद को बुद्ध ने समझाया ।
आचार्य शान्ति देव ने कहा है| जैसा कि ऊपर बतलाया, प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ, यही है : एक पदार्थ अतीत, अत्यन्त नष्ट हो जाता है, और दूसरा उत्पन्न होता है।
जिसके नाश होने के बाद जो उत्पन्न होता है, वह उसका कार्य होता है। कार्य कारण का केवल इतना ही सम्बन्ध है । कारण किसी भी वस्तु को अपने अन्तस्तम में बाकी रख कर नष्ट नहीं होता ।
लेखक | राहुल सांकृत्यायन-Rahul Sankrityayan |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 185 |
Pdf साइज़ | 14.7 MB |
Category | धार्मिक(Religious) |
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