भागवत पुराण हिंदी – Bhagvat Puran Book/Pustak PDF Free Download

पहला अध्याय
देवर्षि नारदकी भक्ति से भेंट
सच्चिदानन्दवरूप भगवान् श्रीकृष्णको हम नमस्कार करते हैं, जो जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और विनाशके हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों प्रकारके तापोंका नाश करनेवाले हैं ॥ १ ॥
जिस समय श्रीशुकदेवजीका यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था तथा लौकिक-वैदिक कमक अनुष्ठानका अवसर भी नहीं आया था, तभी उन्हें अकेले ही संन्यास लेनेके लिये घरसे जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरहसे कातर होकर पुकारने लगे- ‘बेटा ! बेटा! तुम कहाँ जा रहे हो ?” उस समय वृक्षोंने तन्मय होनेके कारण श्रीशुकदेवजीकी ओरसे उत्तर दिया था। ऐसे सर्वभूत-हृदयस्वरूप श्रीशुकदेवमुनिको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २ ॥
एक बार भगवत्कथामृतका रसास्वादन करनेमें कुशल मुनिवर शौनकजीने नैमिषारण्य क्षेत्रमें विराजमान महामति सूतजीको नमस्कार करके उनसे पूछा ॥ ३ ॥
शौनकजी बोले- सूतजी ! आपका ज्ञान अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेके लिये करोड़ों सूर्योकि समान है। आप हमारे कानोंक लिये रसायन-अमृतस्वरूप सारगर्भित कथा कहिये ॥ ४ ॥
भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे प्राप्त होनेवाले महान् विवेककी वृद्धि किस प्रकार होती है तथा वैष्णवलोग किस तरह इस माया-मोहसे अपना पीछा छुड़ाते हैं ? ॥ ५ ॥
इस घोर कलिकालमें जीव प्रायः आसुरी स्वभावके हो गये हैं, विविध क्लेशोंसे आक्रान्त इन जीवोंको शुद्ध (दैवीशक्तिसम्पन्न) बनानेका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ? ॥ ६ ॥
सूतजी! आप हमें कोई ऐसा शाश्वत साधन बताइये, जो सबसे अधिक कल्याणकारी तथा पवित्र करनेवालोंमें भी पवित्र हो तथा जो भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करा दे ॥ ७ ॥
चिन्तामणि केवल लौकिक सुख सकती है और कल्पवृक्ष अधिक-से-अधिक स्वर्गीय सम्पत्ति दे सकता है; परन्तु गुरुदेव प्रसन्न होकर……….
दूसरा अध्याय
भक्ति का दुःख दूर करने के लिए नारदजिका उद्योग
नारदजीने कहा-बाले! तुम व्यर्थ ही अपनेको क्यों खेदमें डाल रही हो ? अरे! तुम इतनी चिन्तातुर क्यों हो ? भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका चिन्तन करो, उनकी कृपासे तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा ॥ १ ॥
जिन्होंने कौरवोंके अत्याचारसे द्रौपदीकी रक्षा की थी और गोपसुन्दरियोंको सनाथ किया था, वे श्रीकृष्ण कहीं चले थोड़े हो गये हैं॥ २ ॥
फिर तुम तो भक्ति हो और सदा उन्हें प्राणोंसे भी प्यारी हो; तुम्हारे बुलानेपर तो भगवान् नीचोंके घरोंमें भी चले जाते हैं ॥ ३ ॥ सत्य, त्रेता और द्वापर – इन तीन युगोंमें ज्ञान और वैराग्य मुक्तिके साधन थे; किन्तु कलियुगमें तो केवल भक्ति ही ब्रह्मसायुज्य (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाली है ॥ ४ ॥
यह सोचकर ही परमानन्दचिन्मूर्ति ज्ञानस्वरूप श्रीहरिने अपने सतस्वरूपसे तुम्हें रचा है; तुम साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्रकी प्रिया और परम सुन्दरी हो ॥ ५ ॥
एक बार जब तुमने हाथ जोड़कर पूछा था कि ‘मैं क्या करूँ ?’ तब भगवान्ने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि ‘मेरे भक्तोंका पोषण करो ॥ ६॥
तुमने भगवान्की वह आज्ञा स्वीकार कर ली; इससे तुमपर श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए और तुम्हारी सेवा करनेके लिये मुक्तिको तुम्हें दासीके रूपमें दे दिया और इन ज्ञान वैराग्यको पुत्रोंके रूपमें ॥ ७ ॥ .
तुम अपने साक्षात् स्वरूपसे वैकुण्ठधाममें ही भक्तोंका पोषण करती हो, भूलोकमें तो तुमने उनकी पुष्टिके लिये केवल छायारूप धारण कर रखा है॥ ८ ॥
तब तुम मुक्ति, ज्ञान और वैराग्यको साथ लिये पृथ्वीतलपर आयी और सत्ययुगसे द्वापरपर्यन्त बड़े आनन्दसे रहीं ॥ ९॥ कलियुगमें तुम्हारी दासी मुक्ति पाखण्डरूप रोगसे पीड़ित होकर क्षीण होने लगी थी, इसलिये वह तो तुरंत ही तुम्हारी आज्ञासे वैकुण्ठलोकको चली गयी ॥ १० ॥
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लेखक | – |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 977 |
PDF साइज़ | 56 MB |
Category | Religious |
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