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श्रीमद भगवद यथार्थ गीता – Yatharth Geeta Book PDF Free Download
यथार्थ गीता
श्रीकृष्ण जिस स्तर की बात करते हैं, क्रमशः चलकर उसी स्तर पर खड़ा होनेवाला कोई महापुरुष ही अक्षरशः बता सकेगा कि श्रीकृष्ण ने जिस समय गीता का उपदेश दिया था, उस समय उनके मनोगत भाव क्या थे?
मनोगत समस्त भाव कहने में नहीं आते। कुछ तो कहने में आ पाते हैं, कुछ भाव-भंगिमा से व्यक्त होते हैं और शेष पर्याप्त क्रियात्मक हैं- जिन्हें कोई पथिक चलकर ही जान सकता है।
जिस स्तर पर श्रीकृष्ण थे, क्रमशः चलकर उसी अवस्था को प्राप्त महापुरुष ही जानता है कि गीता कहती है।
वह गीता की पंक्तियाँ ही नहीं दुहराता, बल्कि उनके भावों को भी दर्शा देता है; क्योंकि जो दृश्य श्रीकृष्ण के सामने था, वही उस वर्तमान महापुरुष के समक्ष भी है।
इसलिये वह देखता है, दिखा देगा; आपमें जागृत भी कर देगा, उस पथ पर चला भी देगा।
‘पूज्य श्री परमहंस जी महाराज’ भी उसी स्तर के महापुरुष थे। उनकी वाणी तथा अन्त:प्रेरणा से मुझे गीता का जो अर्थ मिला, उसी सेवजतन गीता है।
॥ अथ प्रथमोऽध्यायः ॥
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।१।।
धृतराष्ट्र ने पूछा- “हे संजय ! धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में एकत्र युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?”
अज्ञानरूपी धृतराष्ट्र और संयमरूपी संजय अज्ञान मन के अन्तराल में रहता है।
अज्ञान से आवृत्त मन धृतराष्ट्र जन्मान्ध है; किन्तु संयमरूपी संजय के माध्यम से वह देखता है, सुनता है और समझता है कि परमात्मा ही सत्य है, फिर भी जब तक इससे उत्पन्न मोहरूपी दुर्योधन जीवित है इसकी दृष्टि सदैव कौरवों पर रहती है, विकारों पर ही रहती है।
शरीर एक क्षेत्र है। जब हृदय-देश में दैवी सम्पत्ति का बाहुल्य होता है। तो यह शरीर धर्मक्षेत्र बन जाता है और जब इसमें आसुरी सम्पत्ति का बाहुल्य होता है तो यह शरीर कुरुक्षेत्र बन जाता है।
‘कुरु’ अर्थात् करो- यह शब्द आदेशात्मक है। श्रीकृष्ण कहते हैं- प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों द्वारा परवश होकर मनुष्य कर्म करता है।
वह क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। गुण उससे करा लेते हैं। सो जाने पर भी कर्म बन्द नहीं होता, वह भी स्वस्थ |
धर्म-सिद्धान्त- एक
१. सभी प्रभु के पुत्र-
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। (गीता, १५/७) सभी मानव ईश्वर की सन्तान हैं।
२. मानव तन की सार्थकता- अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।। (गीता, ९/३३)
सुखरहित, क्षणभंगुर किन्तु दुर्लभ मानव-तन को पाकर मेरा भजन कर अर्थात् भजन का अधिकार मनुष्य-शरीरधारी को है।
३. मनुष्य की केवल दो जाति-
द्वौ भूतसर्गौलोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च। दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु।। (गीता, १६ / ६)
मनुष्य केवल दो प्रकार के हैं- देवता और असुर। जिसके हृदय में दैवी सम्पत्ति कार्य करती है वह देवत है तथा जिसके हृदय में आसुरी सम्पत्ति कार्य करती है वह असुर है। तीसरी कोई अन्य जाति सृष्टि में नहीं है।
हर कामना ईश्वर से सुलभ-
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक- मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।। (गीता, ९/२० )
मुझे भजकर लोग स्वर्ग तक की कामना करते हैं; मैं उन्हें देता हूँ। अर्थात सब कुछ एक परमात्मा से सुलभ है।
लेखक | स्वामी अडगड़ानंद-Swami Adgadanand |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 429 |
Pdf साइज़ | 3.2 MB |
Category | Religious |
यथार्थ गीता – Yatharth Geeta Swami Adgadanand Book Pdf Free Download
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