विज्ञान भैरव तंत्र | Vigyan Bhairav Tantra PDF

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विज्ञान भैरव तंत्र – Vigyan Bhairav Tantra Book PDF Free Download

112 धारणा विज्ञान भैरव तंत्र |  Vigyan Bhairav Tantra Book/Pustak Pdf Free Download

किताब की अनुक्रमणिका

  1. भैरवके स्वरूप के सम्बन्ध में प्रश्न
  2. परमतत्त्व विषयक आठ प्रश्न
  3. परादि शक्तित्रय विषयक प्रश्न
  4. सकल स्वरूप को असारता
  5. निष्कल स्वरूप की परमार्थता
  6. शिव-शक्ति के स्वरूप का निर्णय
  7. परावस्था की प्राप्ति का उपाय क्या है
  8. क्रमशः ११२ धारणाओं का उपदेश
  9. प्राणापान विषयक धारणा के पविध अर्थ
  10. अष्टविध प्राणायाम
  11. भैरव मुद्रा का विवेचन
  12. शान्ता नामा शक्ति से शान्त स्वरूप की प्रामि
  13. प्राणापान वायु की सूक्ष्मता से भैरव स्वरूप की अभिव्यक्ति
  14. प्रतिचक्र में दौड़ती प्राणवायु का चिन्तन
  15. अकारादि द्वादश स्वरों द्वारा द्वादश चक्रों का भेदन
  16. खेचरी मुद्रा का साधन
  17. इन्द्रिय-पंचक की शून्यता द्वारा अनुत्तरशून्य में प्रवेश
  18. शून्यता में लीन प्राणशक्ति
  19. कपालछिद्र में मन की एकाग्रता
  20. चिदाकाशात्मिका देवी का सुषुम्ना नाड़ी द्वारा ध्यान
  21. सूचक्र के भेदन द्वारा विन्दु में लीन होना
  22. विकल्पों के विनाश हेतु विन्दु का द्वादशान्त में ध्यान
  23. नाद ( शब्दब्रहा ) भावना
  24. प्रणवपिण्डमन्त्र भावना
  25. प्रणव व प्लुतोच्चारण द्वारा शून्यभाव की धारणा
  26. वर्ण के आदि-अन्त के भन्न द्वारा शून्य का साक्षात्कार
  27. नाम द्वारा परमाता की प्रति
  28. अर्जेन्दु, बिन्दु, नाद व नादान्त के अनन्तर

शून्य भावना

  1. परममून्य की धारणा द्वारा समग्र आकाश का प्रकाशन
  2. शून्य के चिन्तन से मन की शून्यता
  3. ऊर्ध्वं मूल और मध्य शून्य के चिन्तन द्वारा
  4. निर्विकल्पता का उदय
  5. शरीर में क्षणिक शून्यता के चिन्तन द्वारा भी तत्वों की निर्विकल्पता
  6. देह के समस्त द्रव्यों की आकाश से व्याप्ति शरीर की त्वचा की व्यर्थता
  7. चित्त की एकाग्रता द्वारा मात्र चैतन्य की अनुभूति
  8. द्वादशान्त में मन की लीनता तथा बुद्धि की स्थिरता
  9. वृत्तियों की क्षीणता द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति
  10. कालाग्नि से स्वारी को जलता हुआ मानना
  11. सारे संसार को विकल्पों से जला हुआ मानना
  12. संपूर्ण जगत् के तत्वों को स्व-स्व कारणों में लय हो जाने का ध्यान करना
  13. हृदय-चक्र में प्राणशक्ति का ध्यान करना

षडव भावना

  1. भुवनाध्या के रूप में चिन्तन से मन का रूप हो जाना
  2. अध्य प्रक्रिया से शिवतत्व का ध्यान करना
  3. संसार को शून्यता में लीन करना
  4. अंतःकरण में दृष्टि का स्थापन

मध्य भावना

  1. दृष्टि-बन्धन भावना का निरूपण
  2. निरालम्ब भाव का वर्णन
  3. ध्येयाकार भावना
  4. शाक्ती भूमिका समग्र शरीर व जगत् को चिन्मय विचारना
  5. अन्तर व बाह्य वायुओं का संघट्टन
  6. सम्पूर्ण जगत् को आत्मानन्द से परिपूर्ण मानना
  7. मायीक प्रयोग ( कुन प्रयोग ) महानन्द की प्राप्ति

प्राणायाम- विवेचन

  1. इन्द्रिय-छिद्रों के निरोध तथा प्राण-शक्ति के उत्थान से ‘परमसुख’
  2. विषस्थान तथा वह्निस्थान के मध्य में मन को स्थित करने से परम शिव की प्राप्ति

सुख भावना

  1. स्त्री-संसर्ग के आनन्द से ब्रह्मतत्व की अनुभूति
  2. स्त्री जन्य पूर्वानुभूत सुखों के स्मरण द्वारा परमानन्द की अनुभूति
  3. धन एवं बन्धुबान्धव के मिलने से उत्पन्न आनन्द का ध्यान
  4. भोजन और पान से उत्पन्न आनन्द का ध्यान
  5. संगीतादि विषयों के आस्वादन में तन्मयता
  6. मनोवांछित संतोष की प्राप्ति के साधनों में मन की स्थिरता
  7. मनोगोचर अवस्था द्वारा परादेवी का प्रकाशन
  8. ( शांभवी भूमिका ) सूर्य-दीपक आदि तेज से चित्रित आकाश में दृष्टि को स्थित करना

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‘गुरुशिष्यपदे स्थित्वा स्वयं देवः सदाशिवः । पूर्वोत्तरपदैर्वाक्यैस्तन्त्रं समवतारयत् ।।’

इति यदुवाच तत् ‘साधु साधु’ इति स्वप्रतिभाश्लाघापूर्वं प्रस्तीति ।

अनुवाद – अथवा परात्रिंशिका आदि ग्रन्थों में उल्लिखित मंत्र विशेष के द्वारा ‘परादेवी’ का सकल रूप है ? अथवा ‘परादेवी’ का सकल रूप है ? अथवा यों कहिए कि उसमें ही परांश प्रधान होने के कारण उत्पत्ति नहीं हो सकती, अतः अपरादेवी ही मुख्य ध्येयरूप है।

यदि परादेवी का भी अभेदरूप होने से नाम मात्र से ही उसमें परत्व है, तब वह भी अपरादेवी के समान ही हुआ तो परत्व वास्तविक रूप से विरुद्ध हुआ ॥ ५ ॥

वर्ण-भेद अथवा देह-भेद मात्र से यह भेद नहीं हो सकता। क्योंकि यदि ऐसा भेद वीकार किया जाय तो निष्फल होने से परत्व और सकल होने से अपरत्व हो जायेगा ।। ६ ।।

व्याख्या – वर्णों का स्वर-व्यंजन युक्त उच्चारण करने योग्य जो रूप है, वह ‘पराशक्ति’ कहलाती है। जैसे ‘ओं नमः श्रीविद्यापादुकाभ्यः’ – यह ‘अपराशक्ति’ का रूप हुआ। वही पृथक्-पृथक् उच्चारण करने पर ‘परापरा’ रूप हो जायेगा। ‘कू’ ‘व्’ ‘ग’ ‘घ्’ इत्यादि स्वररहित व्यंजन पराशक्ति का रूप है। और वे ही स्वरसहित ओं नमः इति ‘अपरा’ का रूप है। क्योंकि स्वतंत्र शक्ति ही परारूप है और यदि वह क्रमपूर्वक सृष्टि रचना की इच्छा करती है तो ‘अपरा’ रूप है। और जब क्रम में रख दी जाती है तो परापरा’ का रूप हो जाती है, जैसा कि ‘तंत्रालोक’ में कहा गया है।

अर्थात् क्रम सृजन अवस्था में स्वातन्त्र्यशक्ति, क्रमसंसिसृक्षा और क्रमात्मकता- ये व्यापक परमात्मा की त्रिमूर्तियाँ हैं । ये तीनों शक्तियां ही ‘त्रिदेवी’ है। इसलिए आगे का स्वरूप कृपा करके मुझे बतलाइए। क्योंकि इस प्रकार प्रतिपादन किया हुत्रा ‘अपराशक्ति’ और ‘परापराशक्ति’ का स्वरूप समान होने के कारण यदि सदृश है, तो परत्व इन दोनों से विरुद्ध है।

परापरा’ और अपरा भेद की उपपत्ति के कारण पराशक्ति में इन दोनों का अभेद स्वभाव है। इसीलिए ‘परा’ स्वरूप में परत्व विरुद्ध हो जायेगा और परंपरा में सकलरूप ही जानने योग्य रहने के कारण समुदाय के मध्य में गिर जाने से परापरा में कोई भेद नहीं रहेगा। यहाँ ‘पर’ और परापरा में अभेदता जा जाने के कारण विरुद्ध दोष होगा।

लेखक क्षेमराज आचार्य-Kshemraj Achary
भाषा संस्कृत, हिन्दी
कुल पृष्ठ 213
Pdf साइज़32.4 MB
CategoryYoga Book

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