गुनाहों का देवता – Gunahon Ka Devta Book/Pustak PDF Free Dowload
गुनाहों का देवता उपन्यास
अगर पुराने जमाने की नगर-देवता की और ग्राम-देवता की कल्पनाएँ आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगर देवता जरूर कोई रोमॅण्टिक कलाकार है। ऐसा लगता है कि इस शहर की बनावट, गठन, जिंदगी और रहन-सहन में कोई बँधे-बँधाये नियम नहीं, कहीं कोई कसाव नहीं, हर जगह एक स्वच्छन्द खुलाव, एक बिखरी हुई-सी अनियमितता ।
बनारस की गलियों से भी पतली गलियाँ और लखनऊ की सड़कों से चौड़ी सड़कें । यार्कशायर और ब्राइटन के उपनगरों का मुकाबला करने वाले सिविल लाइन्स और दलदलों की गन्दगी को मात करने वाले मुहल्ले मौसम में भी कहीं कोई सम नहीं, कोई सन्तुलन नहीं।
सुबहें मलयजी, दोपहरें अंगारी, तो शामें रेशमी धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले, मालवा की तरह हरे-भरे खेत भी मिलें और ऊसर और परती की भी कमी नहीं सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर देवता स्वर्ग-कुंजों से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है जिसके सृजन में हर रंग के डोरे हैं।
और चाहे जो हो, मगर इधर क्वार, कार्तिक तथा उधर वसन्त के बाद और होली के बीच के मौसम से इलाहाबाद का वातावरण नैस्टर्शियम और पैंजी के फूलों से भी ज्यादा खूबसूरत और आम के बौरों की खुशबू से भी ज्यादा महकदार होता है। सिविल लाइन्स हो या अल्फ्रेड पार्क, गंगातट हो या खुसरुबाग, लगता है कि हवा एक नटखट दोशीजा की तरह कलियों के आँचल और लहरों के मिजाज से छेड़खानी करती चलती है। और अगर आप सर्दी से बहुत नहीं डरते तो आप जरा एक ओवरकोट |
डालकर सुबह-सुबह घूमने निकल जाएँ तो इन खुली हुई जगहों की फिजाँ इठलाकर आपको अपने जादू में बाँध लेगी। खासतौर से पौ फटने के पहले तो आपको एक बिल्कुल नयी अनुभूति होगी।
नगर पुराने जमाने की नगर देवता की और ग्राम-देवता की कल्पनाएँ नाज भी मान्य होती तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगर-देवता जरूर कोई रोमॅण्टिक कलाकार है।
ऐसा लगता है कि इस शहर की बनावट, गठन, जिन्दगी और रहन-सहन में कोई वधे बँधाये नियम नहीं, कही कोई कसाव नही, हर जगह एक स्वच्छन्द खुलाव, एक विखरी हुई सो अनिय मितता। बनारस की गलियों से भी पतली गलियाँ, और लखनऊ की सडको से भी चोडी सडकें ।
यार्कशायर और ब्राइटन के उपनगरो का मुकाबला करने वाली सिविल लाइन्स और दलदलों की गन्दगी को मात करने वाले मुहल्ले मौसम में भी कही कोई सम नही, कोई सन्तुलन नही सुबह मलयजी, दोपहर अगारा, तो शामें रेशमी ! धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले, मालवा की तरह हरे भरे खेत भी मिलें और ऊसर और परती की भी कमी नहीं। सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर-देवता स्वर्ग-कुजो से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है जिस के सृजन में हर रंग के डोरे हैं।
और चाहे जो हो, मगर इधर क्वार, कातिक तथा उघर वसन्त के गद नौर होली के बीच के मौसम से इलाहाबाद का वातावरण नैस्टर्शियम भौर पैंजी के फूलो से भी ज्यादा खूबसूरत और नाम के दौरो की खुशबू से भी ज्यादा महकदार होता है।
सिविल लाइन्स हो या अल्फ्रेड पार्क, गंगातट हो या खुशख्वाग, लगता है कि हवा एक नटखट दोशीजा की तरह कलियों के आंचल और लहरों के मिजाज से छेड़खानी करती चलती है |
यह बंगला, ऐसा के कमरे, इस के लान, इस की किताबें, इस के निवासी, सभी कुछ जैसे उस के अपने ये और यह नन्ही दुवली-पतली रगीन चंद्रकिरण-का सुघा जब धाज से वर्षों पहले यह सातवाँ पास पर के अपनी बुआ के पास से यहां भावी तब से ले कर आज तक फैसे वह भी चन्दर को अपनी होती गयो पी, इसे बन्दर खुद नही जानता था ।
लेखक | धर्मवीर भारती – Dharmvir Bharati लक्ष्मीचन्द्र जैन – Laxmichandra jain |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 389 |
PDF साइज़ | 10.24 MB |
Category | उपन्यास(Novel) |
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