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वास्तु शास्त्र – Vastu Shastra PDF Free Download
वास्तु शास्त्र
वेदों से संगृहीत शास्त्रों में से ज्योतिष शास्त्र ‘एक हैं। इसे ‘वेदों का नेत्र ” भी कहते हैं। इसी शास्त्र का एक अंग है ‘वास्तु शास्त्र । यह शास्त्र मंगलमय एवं शिल्पादि निर्माणों का आधार है।
यह संसार के समस्त प्राणियों को समान रूप से श्रेय पहुँचानेवाला शास्त्र है। इसे प्रगति दायक निर्माण ” भी कह सकते हैं। यह कल्पनाओं के बजाय अनुभव को प्रधान्यता देनेवाला एक अपूर्व शास्त्र है।
इस शास्त्र को सृष्टि वैचित्र्य एवं मानव कल्याण के बीच की कड़ी भी मान सकते हैं।
क्यों कि दिशा मानव की दशा को बदल सकती है। वास्तु शास्त्र प्राचीन काल से हैं।
लेकिन राजा महाराजाओं तक ही सीमित होकर आम जनता तक पहुँच न पाया। धीरे धीरे कई परिवर्तन आये तानाशाही के स्थान में प्रजातंत्र का आविर्भाव हुआ
शास्त्रीय अथवा तकनीकी प्रगति के कारण समाचार क्रान्ति आयी।
फलस्वरूप संपन्न लोगों तक ही सीमित रहनेवाला वास्तु शास्त्र आम आदमी तक पहुँच गया ।
” अर्थ मन”नास्ति ततस्मुख लेशं ‘आदि श्लोंकों से पता चलता है कि अर्थ अनर्थदायक है।
लेकिन अंतिवश लोग समझते हैं कि धन ही सबकुछ है धनवान ही बलवान, गुणवान एवं भगवान है।
लेकिन यह सच नहीं है। मैंने कई धनवानों से मिला और मानसिक प्रशांतता के लिए उनकी तड़प भी देखी। अन्त में इस निर्णय पर पहुंच क “अर्थ दुःख भाजन की कहावत है।
मानसिक प्रशांतता से बनकर अमूल्य कुछ और है ही नहीं।
जब आवत संतोष धन संबंधन धूरि समान” यदि हमें सुख-चैन, भोग, भाग्य आदि प्राप्त करना है तो ‘ वास्तु का अनुसरण अनिवार्य है।
क्यों कि विधातु निमित पाँच भौतिक शरीर तथा मानव निर्मित निर्माणों के बीच निकट सम्बन्ध है।
वास्तु के दो प्रकार होते हैं। गृहवास्तु और परिसर वास्तु ।
परिसर के निम्नोन्नत स्थान, भारी निर्माण, जल प्रवाह आदि का प्रभाव प्रहरी पर होता है। इसलिए वास्तु में प्रहरी की प्राधान्यता होती है।
अतः प्राचीन ऋषियों ने प्रहरी के निर्माण में सावधानी बरतने को कहा है।
प्रश्न उठता है कि घर का निर्माण पहले करें या प्रहरीका वास्तु विचार से पता चलता है कि प्रहरी का निर्माण ही पहले करें। प्राकार (चहार दिवारी) से ही घर को बल एवं आकार प्राप्त होता है।
वास्तु शास्त्र के अनुसार शुभ स्थल का निर्णय करने के पश्चात्त स्थल शुद्धि करना है। उसके बाद ईशान्य में एक खाई / कुँआ या बोर डालने के बाद प्रहरी का निर्माण आरंभ करना है।
यदि पहले से ही ईशान्य में कुँआ हो तो उसे बन्द नहीं करना है। पूरब पश्चिम, उत्तर, दक्षिण की दीवारों के समाहार को ही प्रहरी कहते हैं।
इनमें एक दीवार के न होने से भी प्रहरी असंपूर्ण होगी।
एक ओर दूसरों की दीवार ही क्यों न हो चारों ओर दीवारों का होना अनिवार्य है । प्रहरी के दक्षिण एवं पश्चिमी दीवारें ऊँची तथा उत्तर एवं पूर्वी दीवारें उनसे कुछ कम ऊँचाई के हो सकते हैं।
जमीन के दक्षिण एवं पश्चिमी स्थान उन्नत तथा पूरब और उत्तरी स्थान निम्न होना चाहिए। यदि जमीन के पश्चिम, दक्षिण तथा नैरुति में पेड़ हों तो उन्हें किसी हालत में गिराना नहीं।
लेकिन पूरब, उत्तर तथा ईशान्य में ऊंचे पेड़ नहीं होना चाहिए। हाँ कुछ फूल की कुँडियाँ रख सकते हैं। नैरुति के निर्माण के समय दक्षिण-पश्चिम 90° का होना अनिवार्य है।
साथ ही साथ पूर्वोत्तर में कुछ बढ़त हो तो बहुत अच्छा है। लेकिन पूरब एवं उत्तर के सरहद में किसी प्रकार का निर्माण नहीं होना है।
खाली जगह पश्चिम से पूरब में ज्यादा और दक्षिण से उत्तर में ज्यादा होना है।
ट्राक्टर आदि वाहनों के आने जाने की सुविधा के लिए प्रहरी के द्वार चौडे तथा विशाल होना है।
हाल ही में लोग प्रहरी के निर्माण में भी पिल्लर सिस्टम अपना रहे हैं।
इसके लिए नीचे बताये हुए तरी में पहले उत्तर से शुरू करके पूरब में, वायुव्य में, आग्नेय में फिर दक्षिण में, पश्चिम में और आखिर में नैरुति में खोद लेना है।
लेखक | – |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 19 |
Pdf साइज़ | 107.6 KB |
Category | साहित्य(Literature) |
वास्तु शास्त्र – Vastu Shastra PDF Free Download