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वरदान – Vardan PDF Free Download

वरदान उपन्यास
- वरदान.
- वैराग्य..
- नये पड़ोसियों से मेल-जोल.
- एकता का सम्बन्ध पुष्ट होता है.
- शिष्ट-जीवन के दृश्य.
- डिप्टी श्यामाचरण
- निठुरता और प्रेम..
- सखियाँ
- ईर्ष्या..
- सुशीला की मृत्यु.
- विरजन की विदाई.
- कमलाचरण के मित्र
- कायापलट…
- भ्रम
- कर्तव्य और प्रेम का संघर्ष..
- स्नेह पर कर्त्तव्य की विजय.
- कमला के नाम विरजन के पत्र
- प्रतापचन्द्र और कमलाचरण
- दुःख-दशा..
- मन का प्राबल्य
- विदुषी बृजरानी.
- माधवी
- काशी में आगमन
- प्रेम का स्वप्न.
- विदाई
- मतवाली योगिनी.
वरदान
विन्ध्याचल पर्वत मध्यरात्रि के निविड अन्धकार में काल देव की भांति खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे वृक्ष इस प्रकार दष्टिगोचर होते थे,
मानो ये उसकी जटाएं हैं और अष्टभुजा देवी का मन्दिर जिसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु की मन्द-मन्द तरंगों में लहरा रही थी, उस देव का मस्तक है मंदिर में एक झिलमिलाता हुआ दीपक था,
जिसे देखकर किसी धुंधले तारे का मान हो जाता था। पनि व्यतीत हो चुकी थी। चारों और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। गंगाजी की काली तरंगें पर्वत के नीचे सुखद प्रवाह से बह रही थी।
उनके बहाव से एक मनोरंजक राग की ध्वनि निकल रही थी। ठौर-ठौर नावों पर और किनारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच दिखायी देती थी।
ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रधारिणी स्त्री अष्टभुजा देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी। उसका प्रौढ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनता प्रकट होती थी। उसने देर तक सिर झुकाये रहने के पश्चात कहा।
‘माता आज बीस वर्ष से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणो पर सिर न झुकाया हो। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणों का ध्यान न किया हो।
तुम जगतारिणी महारानी हो। तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की अभिलाषा पूरी न हुई। मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊ?”
माता। मैंने सैकड़ों व्रत रखे, देवताओं की उपासनाएं की, तीर्थयात्राएं की, परन्तु मनोरथ पूरा न हुआ। तब तुम्हारी शरण आयी। अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं? तुमनें सदा अपने भक्तों की इच्छाएं पूरी की है। क्या मैं तुम्हारे दरबार से निराश हो जाऊं?
लेखक | प्रेमचंद-Premchand |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 168 |
Pdf साइज़ | 1 MB |
Category | कहानियाँ(Story) |
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