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सूर्य सिद्धान्त विज्ञान भाष्य भाग 1,2 – Surya Siddhanta Book Pdf Free Download
सूर्य सिद्धान्त ग्रन्थ
हुए ग्रह अपनी-अपनी कक्षा में समान परिमाण में हारकर पीछे रह जाते हैं; (२६) इसलिए वह पूर्व की ओर चलते हुए देख पड़ते हैं और कक्षाओं की परिधि के अनुसार गति भी भिन्न देख पड़ती है;
इसलिए नक्षत्र चक्र को भी यह भिन्न समय में अर्थात् (२७) शीघ्र चलनेवाले थोड़े समय में और कम चलने वाले बहुत समय में पूरा करते हैं । रेवती के अंत में पूरे होनेवाले चक्र को भगण कहते हैं ॥
विज्ञान भाष्य-इन तीन श्लोकों में ग्रहों की गति का सिद्धान्त बतलाया गया है; इसलिए यह बड़े महत्व के श्लोक हैं । इनसे संक्षेप में यह पता चलता है कि भारत के प्राचीन ज्योतिषी ग्रहों के बारे में क्या विचार रखते थे ।
२५वें श्लोक में बतलाया गया है कि आकाश में जितने तारे देख पड़ते हैं वह सब ग्रहों के साथ पश्चिम की ओर जा रहे हैं; परन्तु नक्षत्रों के बहुत शीघ्र चलने के कारण हुए देख पड़ते हैं ।
इनकी पूरव की बोर बढ़ने की चाल तो समान है, परन्तु इनकी कक्षाओं का विस्तार भिन्न होने से इनकी गति भी भिन्न देख पड़ती है। इसका रहस्य आगे के चित्र से प्रकट होगा मान लीजिये कि दिये हुए
चित्र में भीतरी वृत्त १० इंच का और बाहरी १५ इंच का है और मान लीजिये कि ख और ग स्थानों से, जो क केन्द्र की सीध में हैं दो चींटियां १ इंच प्रति सेकंड की चाल से भीतरी और बाहरी वृत्त की परिक्रमा करने को चलती हैं,
तो यह स्पष्ट है कि बाहरी वृत्त पर चलनेवाली चींटी एक परिक्रमा १५ सेकंड में और भीतरी वृत्त पर चलने वाली चीटी एक परिक्रमा १० सेकंड में कर डालेगी ।
“लेकिन हमारे सिद्धान्त के बारे में यथार्थ बात क्या है ? हमें यह मिलता है कि इसमें ग्रहों के ऐसे ध्रुवाक दिये गये हैं जिनके स्थानों की भूलों की परीक्षा ऊपर बतलायी हुई रीति से करने पर जान पड़ता है कि इन ध्रुवाकों का निश्चय इस विचार से नहीं किया गया है कि किसी निर्दिष्ट काल में इनकी यथार्थ नाक्षत्रिक स्थिति जानी जा सके।
बल्कि इसके प्रतिकूल ये ऐसी गवाही देते हैं कि ईसा की १० वीं या ११वीं सदी में इस बात का प्रयत्न किया गया है कि ग्रहों की स्थिति सूर्य की स्थिति की तुलना में ठीक-ठीक जानी जा सके।
इसका भी ठीक-ठीक समय संदेहात्मक है क्योंकि उन समयों में बड़ी भिन्नता है, जिनमें अशुद्धि शून्य समझी जाती है संस्कृत साहित्य के इतिहास में यह बात उतनी ही ध्रुव है जितनी कोई बात हो सकती है कि उस समय से बहुत पहले सूर्य सिद्धान्त का अस्तित्व था ।
अन्य ज्योतिष के ग्रन्थों के निर्देशों और उद्धरणों से इस बात का भी पता चलता है कि इस नाम के ग्रन्थ के कई पाठान्तर भी थे और हम ऊपर ( श्लोक ६ में) यह देख भी चुके हैं जो बहुत अस्पष्ट सूचना नहीं है कि वर्तमान ग्रन्थ में ठीक-ठीक वही ध्रुवाङ्क नहीं दिये गये हैं जो पहले सूर्य-सिद्धान्त के माने गये थे ।
इसलिए इस अनुमान के निकट और क्या हो सकता है कि १०वीं या ११वीं शताब्दी में संशोधन के लिये बीज की जो गणना की गयी थी यह मूल में केवल चार या पाँच श्लोकों को बदल कर खपा दी गयी ।
इसलिये जबकि दूसरे ग्रहों की तुलनात्मक अशुद्धियां उस समय का निर्देश करती हैं जब यह बीज संस्कार किया गया था, सूर्य की निरपेक्ष अशुद्धि मूल पुस्तक का प्रायः सच्चा समय प्रकट करती है ।”
“हमारे कोष्ठक में सूर्य की शून्य अशुद्धि का समय २५० ई० है इस तारीख की अशुद्धता के लिये बहुत जोर देने की आवश्यकता नहीं,
क्योंकि यह उस बेव की शुद्धता पर निर्भर है जिससे सूर्य का स्थान पहले-पहल निश्चय किया गया और फिर उस विन्दु से निर्देश किया गया जिसको आकाश चक्र का आदि विन्दु कहते हैं कोरी आँख से इसका वेध करना असंभव था कि सूर्य का केन्द्र मध्यम गति के अनुसार रेवती के योग तारा Zeta Piscium के दस कला पूर्व कब था और यह तो स्पष्ट है कि हिन्दुओं ने इस विन्दु से राशिचक्र के अन्य विन्दुओं का जो निश्चय किया है उनमें बड़ी-बड़ी भूलें हैं और यदि सूर्य के स्थान के निश्चय करने में एक अंश की भी भूल हो जाय तो इससे शून्य अशुद्धि के काल में ४२५ वर्ष का अन्तर पड़ सकता है
लेखक | महावीरप्रसाद श्रीवास्तव-Mahavirprasad Srivastav |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 838 |
Pdf साइज़ | 26.9 MB |
Category | साहित्य(Literature) |
सूर्य सिद्धान्त – Surya Siddhant Book/Pustak Pdf Free Download