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सुगंध दशमी व्रत कथा – Sugandh Dashmi Vrat Katha PDF Free Download
सुगंध दशमी व्रत कथा
असने काज आते मुनि जोये । रानीसों भाषै नृप सोय ॥ तुम जावो भोजन द्यो सार । कीजो मुनिकी भक्ति अपार ॥ १२॥
यह सुनि रानी मन इम घरचौ । भोगनमें मुनि अंतर कयौ ॥ दुखकारी पापी मुनि आय । मेरो सुख इन दियो गमाय ॥ १३ ॥
पनहीमें दुखी अति घनी । आज्ञा मान चली पतितनी ॥ जाय दियो भोजन ततकाल । आगे और सुनो भूपाल ॥ १४ ॥
मुनि भूपतिके ही घर गयौ । रानी असन महा निंद. दयौ ॥ कड़वी तूंबीको आहार । दियौ मुनीश्वरकौं दुखकार ॥ १५ ॥
भोजन कार चाले मुनिराय । प्रारग-मार्हि गहलं अति आय ॥ पर्थो भूमिपर तब मुनिराज । कीनो श्रावक देखि इलाज ॥ १६ ॥
तातैं मुनी महा दुख पाय । सून होय गये अधिकाय ॥ धिक्कारहि ताकूँ अति घणूं’ । दुष्ट स्वभाव अधिक जातणूं ॥१७॥
लेखक | खुशालचंद – Khushalchand |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 34 |
PDF साइज़ | 931 KB |
Category | Vrat Katha |
सुगन्ध दशमी व्रत की कथा
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के काशी देश में वाराणसी नगर था।
वहां पर राजा भसूपाल राज्य करता था। उसके श्रीमती नामक स्त्री थी।
एक समय वह वनक्रीडा को गया तभी राजा ने अपनी समीप से एक मासोपवासी मुनिराज को नगर में आहार ग्रहरण करने हेतु जाते देखा।
राजा ने रानी से कहा कि तुम जाकर अपार भक्ति से मुनि को आहार दो। रानी को मन में बडा क्रोध आया। उसने सोचा विघ्न करने वाले ये मुनि ही हैं, इन्होंने मेरा सुख गंवा दिया।
मन में दुःखी होते हुए भी वह पति को आज्ञा मानकर चली गई। उसने घर जाकर कडवी तूंबडी का आहार बनाया और उसे मुनिराज को दे दिया।
मुनिराज आहार कर चले तो मार्ग में ही उनहें पीडा होने लगी। वे भूमि पर गिर पडे। यह देखकर श्रावकों में कोलाहल हो गया। वहीं पर एक जिनालय था, उपचार हेतु वे उन्हें वहां ले गये।
सभी ने रानी के इस प्रकार खोटे आहार देने की निंदा की। जब राजा ने यह बात सुनी तो उसे भी बहुत दुःख हुआ। उसने रानी को खोटे वचन कहे और उसके वस्त्राभूषण छीनकर बाहर निकाल दिया।
दुष्टकर्मो के प्रभाव से रानी के शरीर में कोढ हो गया। प्राण छोडकर उसने भैंसे के रूप में जन्म लिया। बचपन में ही उसकी मां मर गयी तब वह अत्यंत दुर्बल हो गई।
एक बार कीचड में फंस गई। वहीं से उसने किसी मुनि को देखा, तब वह क्रोधित होकर सींग हिलाने लगी, तभी वह और अधिक कीचड में डूब गई और मृत्यु को प्राप्त हो होकर गर्दभी हुई।
गढ़र्भ रूप में भी पिछले पैर से पंगु थी। उसने एक मुनिराज को देख। उन्हें देखकर उसे मन में कलुष परिणाम हुए। उसने उनके ऊपर पिछले पैर का प्रहार किया। प्राण छोडकर वह अपने पाप कर्म के प्रभाव से शूकरी हुई।
श्वानादिक के दुःख से युक्त हो वह मरकर चाण्डाल के पुत्री हुई। माता के गर्भ में जब वह आई तो उसके पिता का देहांत हो गया और जन्म के समय उसकी मां मर गई।
जो कोई स्वजन उसका पालन करता था, उसकी मृत्यु हो जाती थी। उस कन्या के शरीर से अत्यधिक दुर्गंध आती थी तब उसे लोगो ने जंगल में छोड दिया।
दुर्गंधा जंगल में कंद-मूल, फल खाती हुई घमा करती थी वहां एक मुनि महाराज शिष्य सहित एक बार आए। शिष्य ने गुरू से प्रश्न किया कि इतनी भीषण दुर्गंध किसी वस्तु की आ रही है।
मुनि महाराज ने कहा- कि जो प्राणी मुनि को दुख देता है वह विभिन्न प्रकार के दुख पाता है। इस कन्या ने पूर्व में मुनि को अधिक दु:ख दिया था, इसी कारण नाना तिर्यंच योनि में परिभ्रमण कर यह चाण्डाल के घर कन्या हुई है।
शिष्य ने गुरू से पूछा- इस कन्या का यह पाप कैसे नष्ट हो सकता है? गुरू महाराज ने कहा कि जिनधर्म को धारण करने से पाप दूर हो जाता है।
गुरू, शिष्य के उपर्युक्त संवाद को उस कन्या ने सुना और उपशम भावों से युक्त हो, उसने पंच अभक्ष्य फलों का त्याग कर दिया। शुद्ध भोजन किया तथा शुद्ध भाव से प्राण छोडे अनन्तर वह उज्जयिनी में एक दरिद्र ब्राह्मण के पुनी हुई।
उसके उत्पन्न होते ही माता-पिता मर गये। यह अत्यंत दुखी वृद्धावस्था में एक दिन वन में गई। वहां अश्वसेन नामक राजा जाकर सुदर्शन नामक मुनिराज से धर्म श्रवण कर रहे थे। उसी समय वह कन्या वहां से निकली।
मुनिराज ने कन्या की और इंगितकर कहा कि पाप के उदय से ऐसी हालत होती है। कन्या घास का गट्ठर उतार कर मुनि के वचन जब सुन रही थी, तभी उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। वह मूर्छित हो गई।
राजा ने उपचार कराकर उसे सचेत किया तथा उससे मूर्छा का कारण पूछा- कन्या ने अपनी पूर्व जन्म का वृतान्त बतला दिया। यह सुनकर राजन ने मुनिवर से कहा यह कन्या अब कैसे सुख पाएगी?
मुनि महाराज ने कहा कि यदि यह कन्या सुगन्धदशमी व्रत का पालन करेगी तो सुख पायेगी। सुगन्धदशमी व्रत की विधि के विषय में प्रश्न पूछने पर मुनि महाराज ने सारी विधि बतला दी।
राजा ने कन्या को बुलाकर धूपदशमी व्रत बतलाया। कन्या ने उसका भक्ति पूवर्क पालन किया। तब उसका पूर्व पाप कर्म नष्ट हुआ। राजा तथा नगरवासियों ने भी उस व्रत को धारण किया।
धुपदश्मी:……… एक कनकपुर नगर था। उसके राजा का नाम कनकप्रभ था। उस राजा की रानी कनकमाला थी। राजा के एक राज श्रीष्ठी था, जिसका नाम जिनदत्त था। जिनदत्त की स्त्री जिनदत्ता थी।
इन दोनो के उपर्युक्त पुत्री ने जन्म लिया। उसका नाम तिलकमती था। वह अत्यधिक रूपवती और सुगंधवती थी। पुनः उसके कुछ पापकर्म का उदय आया, जिससे उसकी मां की मृत्यु हो गई।
माता के बिना वह दुख पाने लगी। जिनदत्त ने दूसरा विवाह कर लिया। उसकी नवविवाहिता पत्नी गोधनपुर नगर के वृषभदत्त वणिज की सुता बंधुमती से सेठ की तेजोमती नामक कन्या हुई।
बंधुमती तिलकमती से द्वेष करने लगी। तब सेन ने दासियों से तिलकमंती की सेवा करने को कहा। एक बार राजा कंचनप्रभ ने जिनदत्त को दूसरे द्वीप भेज दिया।
जाते समय वह बंधुमती सेठानी से कह गया कि मैं राजा के कार्य से दूसरे देश को जा रहा हूं, तुम तिलकमती तथा तेजमती का विवाह श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त वर के साथ कर देना। सेठ जिनदत्त चले गए।
कन्या की सगाई वाले जो भी आते वे तेजोमती की अपेक्षा तिलकवती को अधिक पसंद करते थे। बंधुमती तिलकवती की निंदा करती थी, किंतु कोई भी उसकी बात नहीं मानता था।
एक बार उसने तिलकवती को वरपक्ष को दिखलाकर तेजामती के विवाह का निश्चय किया। जब ब्याह के साथ सब लोग आए त बवह तिलकवती का श्रृंगार करके उसे अपने साथरात्रि में श्मसान ले गई।
वहां पर उसने चारों और चार दीपक जलाकर रख दिए और बीच में तिलकवती को बैठाकर कहा कि यहां पर तुम्हारा पति आएगा। उसके साथ विवाहकर तुम घल चली आना। ऐसा कहकर वह वहां से चली गई।
आधी रात्रि के समय राजा ने अपने महल से श्मशान की तरफ दीपकों की जलती हुई ज्योति देखी और बीच में कन्या को देखा।
देखकर मन में विचार किया कि यह देवता है या यक्षिणी है अथवा किन्नरी है अथावा कोई भी है? यहां क्यों आई है? ऐसा सोचकर तलवार लेकर वह वहां चला जहां तिलकमती बैठी थी।
राजा ने तिलकमती से वहां बैठने का कारण पूछा-कन्या ने कहा कि राजा ने मेरे पिता को रत्नद्वीप भेज दिया है तथा मेरी माता मुझे यहां बैठा गई है तथा कह गई है कि मेरा पति यहां आएगा।
इस स्थान पर तुम आए हो अतः तुम ही मेरे पति-भार्त हो। यह सुनकर राजन ने उसके साथ विवाह किया। राजा प्रातः जब जाने लगा तो तिलकवती ने उससे कहा कि तुम तो मेरे पति हो, मेरा उपभोग कर अब तुम कहां जा रहे हो?
राजा ने उत्तर दिया कि मैं प्रतिदिन रात्रि को तुम्हारे पास आऊंगा। तिलकमती ने सिर झुकाकर पूछा- मैं तुम्हारा नाम क्या बतलाऊंगी? राजा ने अपना नाम गोप बतलाया।
बंधुमती घर जाकर कहने लगी कि तिलकमती दुख की खान है। विवाह के समय पता नहीं उठकर कहां चली गई? ढूंढ़ते उसने कन्या को श्मशान में पा लिया। जाकर उससे कहा कि यहां क्यों आई है?
क्या तुझे भूत प्रेत लगे गए हैं? तिलकवती ने हर्षित होकर कहा कि हे माता! जैसा तुमने कहा था, वैसा ही मैंने किया है। बंधुमती जोर से कहने लगी कि यह असत्य बात कह रही है,ऐसा कहकर वह उसे घर ले आई।
उसने घर आकर उसके पति के विषय में पूछा-तिलकमती ने कहा कि मैंने गोप से विवाह किया है। यह सुनकर उसने उस पर कुपित हो अपने पास का ही एक घर उसके रहने के लिए दिया।
प्रतिदिन राजा उसके घर आने लगा। बंधुमती तिलकमती को दीपक जलाने के लिए तेल ही नहीं देती थी, अतः दोनों अंधेरे में ही रहते थे।
कुछ दिन बीत जाने पर बंधुमती ने तिलकमती से कहा कि तू ग्वाले से आज कहना कि मुझे दो बुहारी लाकर दे जाना। रात्रि में तिलकमती ने अपने स्वामी से माता को देने के लिए दो बुहारी मांगी। राजन ने दूसरे दिन स्वर्णमय सींकों वाली तथा रत्नमय मूठ वाली दो बुहारी लाकर तिलकमती को दे दी।
साथ ही उसे उत्तम सोलह आभूषण तथा वस्त्र और दिए। तिलकमती ने तब राजा के चरण धोकर उन्हें केशों से पोंछा। प्रातः काल राजा ने अपने महल गया। तिलकमती ने बंधुमती को दोनों बुहारी दे दीं तथा उसे वस्त्र एवं आभूषण भी दिखलाए।
उन्हें देखकर बंधुमती ने कहा कि तेरा भर्ता चोर है, उसने राजा के आभूषण चुराए हैं। ऐसा कहकर वे आभूषण छीन लिए। तिलकमती दुखी हुई, उसे राजा ने सांत्वना दी कि तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हें और ला दूंगा।
जिनदत्त रत्नद्वीप से आया। बंधुमती ने पति से कहा- कि तुम्हारी पुत्री के अवगुण कहां तक कहें, विवाह के समय उठकर पता नहीं कहां चली गई और उसने चोर केसाथ विवाह कर लिया।
वह चोर राजा के यहां जाता है और वस्त्राभूषण चुरा कर ले आता है। उस चोर ने इसे ये वस्त्राभूषण दिए। इन्हें छीनकर मैंने रख लिये हैं। यह कहकर उसने पति के सामने वे वस्त्राभूषण रख दिए। सेठ यह देख कंपित हो गया तथा उन वस्त्राभूषणों को राजा के सामने रखकर सब वृत्तांत कह सुनाया।
राजा ने कहा- यह बात तो ठीक है, किंतु चोर के विषय में भी तो बतलाओ। सेठ ने कन्या से चोर के विषय में पूछा-कन्या ने कहा कि मेरी माता मुझे घर में दीपक जलाने के लिए तेल ही नहीं देती थी, अतः मैंने अपनी पति का मुंह नहीं देखा, किंतु मैं एक तरीके से पहचान सकती हूं कि मैं प्रतिदिन पति के आने पर उनके चरण धोती थी। चरणों को धोकर मैं पति की पहचान कर सकती हूं।
सेठ ने जाकर राजा से यह बात कही। राजा ने कहा- कि चोर का पता लगाने के लिए हम आज तुम्हारे घर आयेंगे। सेठ ने घर जाकर तैयारी की। राजा आया। सारी प्रजा इकट्ठी हुई।
तिलकमती नेत्र बंदकर सभी के चरण धुलाने लगी, किंतु सभी के विषय में वह कहती जाती थी। कि यह मेरा पति नहीं है। जब राजा आया तब उसके चरण धोकर उसने कहा कि यह मेरा पति है।
राजा यह सुनकर हंसकर कहने लगा कि इस कन्या ने मुझे चोर बना दिया है। यह सुनकर तिलकमती कहने लगी चाहे राजा हो या कोई और, मेरा पति तो यही है। उसकी बात सुनकर सब हंसने लगे।
राजा ने कहा- कि आप लोग व्यर्थ हंसी मत कीजिए, इसका पति मैं ही हूं। लोगों के पूछने पर राजा ने सारा वृत्तान्त कह दिया। सारे लोगों ने कहा कि यह कन्या धन्य है जो कि इसने राजा जैसा पति पाया।
पूर्वजन्म में इसने व्रत किया इसका यह फल इसे प्राप्त हुआ है। सेठ ने भोजन कराकर सबके समक्ष इन दोनो का विवाह करा दिया। राजा ने तिलकमती को पटरानी बना दिया।
एक बार राजा अपनी रानी के साथ जिनमंदिर गया हुआ था, वहां उसने श्रुतसागर मुनि के दर्शन किए तथा उनसे प्रश्न किया कि मेरी यह रानी इतनी रूप सम्पदा वाली कैसे हुई? मुनि महाराज ने मुनिनिन्दा से लेकर सुगंध दशमी व्रत धारण करने इत्यादि की सारी कथा कह दी।
इसी अवसर पर उस सभी में किसी देव ने प्रवेश किया। उसने जिनेन्द्र देव, जिनशास्त्र और जिनगुरू को प्रणाम किया, अनन्तर वह महादेवी तिलकमती के चरणों में आ गिरा।
वह बोला-स्वामिनि, अपने विद्याधर रूप पूर्व जन्म में तुम्हारे ही प्रसंग से मैंने सुगंधदशमी व्रत का अनुष्ठान किया था। उसी व्रतानुष्ठान के प्रभाव से मैं स्वर्ग में महान ऋद्धिमान देवेन्द्र हुआ हूं।
हे देवी! तुम मेरे धर्म साधन में कारण हुई हो, अतः तुम्हारे दश्ज्र्ञन के लिए मैं यहां आया हूं। हे देवि! तुम मेरी जननी हो। इतना कहकर और रानी को प्रणाम कर वह देव आकाश में चला गया। यह दश्य देखकर सभी को सुगन्धदशमी व्रत पर और भी अधिक दृढ श्रद्धा हो गई। सभी प्रसन्नचित्त हो अपने घर गए।
तिलकमती ने सुगंधदशमी व्रत ग्रहण कर प्रायोपगमन धारण किया और समाधिमरण किया अतः वह स्त्री पर्याय को छोडकर ईशान्य स्वर्ग में दो सागर कीआयु वाला देव हुआ। आगामी भव में उसे संसार से मुक्ति रूप अद्भुत फल प्राप्त होगा।
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