श्री विचार सागर ग्रंथ | Vichar Sagar PDF

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विचार सागर – Shri Vichar Sagar PDF Free Download

श्री विचार सागर ग्रंथ

विनका “रिप्रभाकर” च देखिके बढेवडे विद्वार थी भीगिगासगी पडिएवई स प किखेंी वैसे इसंरचि गरये। सराहा। अपिक क्या की। सिमोंके समय भी बच पी साधल्पनाविष श्रीनिवसवासजीके सलाम कोई परिषकमियावाला यंडियत] देखतेमे ।

बी श्रीहइचिप्रभाकर में अनेक नहीं है ।।भीमिषलवासजी पृरभ पीनर जहां विचरतेषे खां बेदातथासकी प्रतिदिन कथा करतेथे ॥ इसबंधकी औ इचित्रमाचरकी वी आपनै बहुत वेर कथा करीहै ।

अशा जहां आप अवण करायतेथे, त तहां अनेकसापुनकी समा अयगवास्ते विजतीची औ अतिरसिकमान्प सुनिके भामंदपार होतीची॥ निवलदास बी औकार्धी नी विदेही रहते ये ।॥ तहा आय भी कूहे] थवग्मे जातेथे ।

एकसगय भीकाक्षीजीने भाषाराना- यगके कर्चासें विठक्ष्या महात्मा श्रीतुलसी दाशजी कंथा करते थे । तरा आप भयेपे प्रसंगसे भीतुलसीदासजीने कहा, ओोर-“ईयर- मि भावरणशक्ति नहीं है।

जिसेपसक्ति है” यह सनिके थीनिधलदासीनै कखा कि “धरविप दोन नहीं हैं” इस बात पर घोडाशालार्थ हुपा । इस पीछे आप तिस महात्मामी कथाम गये नहीं ।

कारण ओो अवनै रचनोंकारे कई किसी है खेद दो तो मला नहीं। ऐसा विचारिक नये नहीं ।। परंतु भार तिन महात्माकी निष्ठाकी बहुत ाषा करतेथे ।

उसे श्रीतुलसीदातजी भी श्रीनिशलदासजी के पांढित्य पो अडूतनिष्ठाकी वारंवार स्तुति करतेथे । “श्र आररण औ दिक्षेपयक्ति दोनों नहीं। ऐसा इसके २.५ जी २०७ में भली भलि्रकार परविपादन किया।

इस ग्रंथर रचनमें श्रीनिधलदाजीने कोईहिंदुस्थानम चुंदीविप रामसिंहराजाने । श्रीनिधनदासजीई बटे भादरमहिव अपने पास रखेवे बी राजारानी दोनू खिनोमें गुक्रमान रखतेमे ।

भीनियलदासजीकी संगतिसें सो राजा पंडित की पदवी प्राप्तमया ॥ राजाने एकसय बडेचसे पदिखायी विसमें अनेकत्ंधनके दोष पी स्पष्ट दिखाये ।। जय केई संस्कतके वेधे पंढित श्रीश्चित्रमाकर” सुपाहके काहेंते?

नो संस्कृवके बैधे होहके भावादकी सदस्यता केनैई विनक लना होनेहै ।

परंतु अतिडरकृष्ट होनेते विसकी सहायता लेतेर्दे ॥ “श्रीचत्षिप्रमाकर में न्याय आदिक बनेकपांदिल्पमत मलिमकार दिखाये है । यातें तिषका पढना कठिन मयाई ॥

जो साक्षी शाम एकता बने है | और ॥ ७५ ॥ जो पूर्व कया:-” साक्षी नाना हैं औ म एक है, यातें नाना- साक्षीकी एक एकता नै नहीं ।

औ जो व्यापक एकमतें साक्षीका अभेद जंगीकार करोगे तो साक्षी भी सर्वशरीर में व्यापक एकही होवैगा ।

यातें सर्वशरीरके सुखदुःख मान बेचाहिये ” ||

नाम औ जलका आनयनरूप जो कार्य प्रतीत हो है सो घटरूप उपाधिकी दृष्टि प्रतीत होवैहै ।

घटरूप उपाधिकी इष्टिविना भटाकाश नाम औ अलका आनयनरूप कार्य प्रतीत होवै नहीं ।

किंतु आकाशमात्रही प्रतीत होवै । यात घटाकाश महाकाशरूप है ।।

सो शंका बने नहीं । काहेते ? यद्यपि साक्षी एक है औ जीवसाक्षी नाना है औ परिच्छिन्न हैं।

वो बी व्यापकत्रा भिन्न नहीं | जैसे घटाकाश नाना है औ परिच्छिन्न हैं वो बी महाकाश भिन्न नहीं ।

किंतु महाकाशरूपी काश हैं | तैसें नाना जो परिच्छिन्नसाक्षी सोवी ब्रह्मरूपही है ।

ज्ञान हो है :- “मैं सुखसे सोया औ कछु भी नहीं या ज्ञानका सुख औ अज्ञान जानता हुवा विषय है, सो सुख औ अज्ञानका जो जागृत में ज्ञान है सो प्रत्यक्षरूप नहीं ।

करहेते ? जा ज्ञानका विपय सन्मुख हो सो ज्ञान प्रत्यक्ष- रूप होवै है औ जागृतकालमें सुख औ अज्ञान है नहीं ।

यातें जागृत में सुख औ अज्ञान- का ज्ञान प्रत्यक्षरूप नहीं किंतु स्मृतिरूप है।

सो स्मृति अज्ञातवस्तुकी हो नहीं किंतु ज्ञातवस्तुकी होवैहै, यातै सुषुप्ति में सुख औ अज्ञानका ज्ञान है ।

सो सुपुतिका ज्ञान अंत:- करण औ इंद्रियजन्य तो है नहीं । काहते ? सुषुप्ति अंतःकरण और इंद्रियका अभाव है ।

या सुषुप्ति में आत्मस्वरूपही ज्ञान हैं | ज्ञान औ प्रकाशका एकही अर्थ है |

लेखक पीताम्बर-Pitambar
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 459
Pdf साइज़17.1 MB
Categoryधार्मिक(Religious)

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