चैतन्य भागवत – Shri Chaitanya Bhagwat Pdf Free Download

पुस्तक का एक मशीनी अंश
वेदव्यासो य एवासीदासवृन्दावनोऽधुना । सखा यः कुसुमापीडः कार्यतत समाविशन ॥
अर्थात् जो द्वापर में वेदव्यास थे वे गौरांगलीला में वृन्दावनदास होकर प्रकट हुए एवं ब्रज में जो कुसुमा पीड नामक श्रीकृष्ण के सखा रहे अब वे ही गौरांगलीला में किसी कार्य वश वृन्दाबनदासजी में आवि हुए हैं।
वृन्दावनदास ठाकुर ने पहले अपने चैतन्यभागवत नामक इस ग्रन्थ का चैतन्यमंगल नाम रा था, कविराज गोस्वामी के चैतन्यचरितामृत की रचना के समय वह चैतन्यमंगल नाम से प्रसिद्ध था,
पहले चैतन्य मंगल में उस समय के प्रचलित अन्यान्य कवियों के अन्यान्य गीतिकाव्य के गीती का समावेश था पश्चात् वृन्दावन के पण्डित वैष्णव समाज ने इस प्रन्थ को अपने पाठ के योग्य बनाने के लिये उन स अन्यान्य गीति काव्यों को इससे पृथक कर दिया तथा इसको चैतन्यभागवत नाम से प्रसिद्ध किया ।
मुरारी के संग वल से उनको नित्यानन्द प्रभु के संग का सुख मिला तथा उनके कृपापात्र बने थे ।
कुछ दिन नित्यानन्द प्रभु के साथ वे भक्ति प्रचार में प्रवृत्त रहे, एवं अन्त में किसी कायस्थ भक्त की सहायता से देनुद ग्राम में शेषजीवन पर्यन्त निवास किया, वहाँ हो उनकी पाटवाडी थी, जिसे कि वहाँ के महन्तगत बहुत दिनों से सुरक्षित रूप में परिचालित करते भा रहे हैं।
वहाँ वृन्दावनदासठाकुर के द्वारा ग्वहम्त लिखित चैतन्यभागवत की मूल पोथी मौजूद है। उनके द्वारा विरचित चैतन्य भागवत के अतिरिक्त कुछ पृथक रचित पद भी मिलते हैं।
इसके अतिरिक्त उनका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं मिलता है। उनके प्रन्थ का रचनाकाल निश्चय रूप से निर्द्धारित करना असम्भव है । इस में नाना मत भेद है । किसी के मन में प्रन्थ का रचनाकाल १४७० शक तथा किसी के मत में १४५७ शक एवं अन्य किसी के मत में १४६७ शक है ।
रामगति न्यायरन्त, अच्युत एवं दिनेश बाबू दोनों, अम्बिकाचरण ने क्रम से इस प्रकार रचनाकाल का सल्लेख किया है । वृन्दावनदासजी के तिरोभाव का निश्चय समय भी निणित नहीं हो सकता है। अच्युत बाबू एवं दिनेश बाबू कहते हैं कि १४११ शक कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि उनके तिरोभाव कर दिवस है ।
वेदव्यासो य १वासीदासबुन्दावनोऽबुना । सखा यः कुसुमापोडः कार्यतम्त समाविशन । अर्थात् जो द्वापर में वेदव्यास थे थे गौरांगलीला में वृन्दावनदास होकर प्रकट हुए
एवं प्रम में जो कुसुमा रीड नामक श्रीकृष्णा के सखा रहे अब घे डो गौरांगलीला में किसी कम््य वश वृन्दाबन्दासजी में छविष्ट हुए हैं। वृन्दावनदास ठाकुर ने पहले अपने चैत्यभागवत नामक
इस प्रन्ध का तन्यमंगल नाम रक्या था, कविराजगोस्वामी के चेदम्यचरितापसूत की रचना के समय वह चैतन्धमंगल नाम मे प्रसिद्ध था पहले चैतन्यमंगल में उस समय ऐे प्रचलित
अन्यान्य कवियों के अन्यान्य गीतिकाव्य के नावी का वश था। पश्चात् वृन्दावन के परि्ड त वैप्णय समाঅ ने इस प्रन्थ की अपने पाठ के योग्य बनाने के लिये उन मत्र अन्यान्य गीति
काव्यों को इससे पृथक कर दिया तथा इसको चैतन्यभागवत नाम से प्रसिद्ध किया। मेला मी कहा जाता है कि लोचनहासठाकुर के द्वारा विरचित “चैतन्यमंगल’ को दखकर स्व्म
पृदबनदासठाकुर ने अपने चैतन्यमंगल अन्य के नाम को परिवर्तन कर चैठन्यभागवत नाम र्ा । “चंनन्यभागवन के रोपांश की रचना के समय वे नित्यानन्द प्रभु में इस प्रकार भावावेश
में डूबे हुए थे कि-महाप्रभु की नीला अधिक न लिख सकें वरं श्रीनित्यानन्द प्रभु की लीला महिमा वर्णन में ही अत्यधिक यनशील हुम् । न विवाह होने का किसी अन्य में उल्लेख नहीं है
इस से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे ठाकुर नरोत्तमदासजी की भाँति आकुमार प्रहाचारी थे तथा अल्पवयस से वे मा मुगाी” में निवास करते थे । यहाँ सारंग मुरारी के संग
बल से उनको नित्यानन्द प्रभु के संग का सुख मिला तथा उनके कृप बने थे । पुछ दिन नित्यानन्द प्रभु के साथ वे मक्ति प्रचार में प्रव इस प्रकार भावावेश
लेखक | वृन्दावनदास ठाकुर-Vrindavandas Thakur |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 779 |
Pdf साइज़ | 774 MB |
Category | धार्मिक(Religious) |
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