संगीत शास्त्र | Sangeet Shastra PDF In Hindi

संगीत शास्त्र – Sangit Shastra Book PDF Free Download

अनाहत नाद

नाद के दो भेद है। एक आहत और दूसरा अनाहत । हमारे शरीर मे ‘चेतन’ का स्थान हृदय है। यही ईश्वर का आविर्भाव अधिक मात्रा में है।

हृदय में ‘दहराकाश’ नाम से एक छोटी-सी जगह शुद्ध आकाश से व्याप्त है । उसमें आघात के बिना नाद का आविर्भाव हमेशा हो रहा है। इसका नाम है अनाहत नाद ।

ऐसा होने पर भी हम उसे नही सुना करते, क्योकि हमारा मन और इन्द्रिय ग्राम वाह्य विषयो में आसक्त है। इन्द्रियों को बाह्य विषयो से खींचकर अन्तर्मुख होने के पश्चात् अगर हम मुनें, तो उस अनाहत नाद को सुन सकते हैं।

शास्त्र मे कहा गया है कि वह नाद इतना मधुर है कि उसे सुनने के बाद मन किसी दूसरे विषय मे नही लगता। यह योगियों का ही साध्य है ।

हृदय में आनन्द स्वरूपी ईश्वर का आविर्भाव अधिक होने के कारण उस आनन्द मे स्वरूप की छाया अनाहत नाद में पड़ती है। इसीलिए अनाहत नाद आनन्दजनक है अर्थात् मधुर है। यही उसकी मधुरता का कारण है।

योगियो की तरह, जनसाधारण ही नही, जीवसाधारण को भी, इस आनन्द का अनुभव करने के लिए संगीत रूपी एक साघन ईश्वर की देन है।

स्वरस्थान और स्वरगत श्रुतियाँ

यद्यपि स्वर दो, तीन या चार श्रुतियो से उत्पन्न होता है तथापि वह उनमे से एक नियत या विशेष श्रुति पर ही कुछ अधिक देर ठहरता है।

जहाँ स्वर अधिक देर ठहरता है, उसे नियतश्रुति या स्वरस्थान कहते है। इस तरह पड्ज का स्वरस्थान चौथी, ऋषभ का सातवीं गान्धार का नवी, मध्यम का तेरहवी, पञ्चम का सत्रहवी, धैवत का बीसवी और निषाद का स्थान बाईसवी श्रुति है।

स्वरस्थान वीणा में स्पष्टतया निदर्शित कर सकते हैं और स्वरगत श्रुतियो को बाँसुरी मे ही स्पष्ट रूप से जान सकते हैं।

बाँसुरी मे प्रत्येक स्वर के लिए नियत रहनेवाले द्वारों को पूरा खोल देने से चतु श्रुति स्वर की उत्पत्ति होती है।

द्वार को आधा बन्द करके दूसरे आधे भाग को खुला रखने से द्विश्रुतिस्वर की उत्पत्ति होती है। और उम द्वार में उँगली को पुन -पुनः बन्द और खुला रखने से त्रिश्रुतिस्वर की उत्पत्ति होती है।

मिश्रित स्वरो का जन्म पहले विवादी दोप के परिहार के रूप में हुआ।। ग्यग-वली में ऋषभ और गान्धार तथा धैवत और निपाद पास-गाग आने है।

पर ये ऋषभ गान्धार परस्पर विवादी है और धैवत निपाद भी परस्पर विवादी है। इगलिए ऋपभ गान्धार को साथ-साथ उच्चारण करने गे रक्तिभग होता है।

इसी तर: धैवत निषाद को भी। इसे परिहृत करने के लिए गान्धार और मध्यम को मित्रि-न करके एक नये स्वर की उत्पत्ति हुई। उसका नाम ‘अन्नरग्वर’ हे ।

उगका रर- स्थान मध्यम की द्वितीय श्रुति अर्थात् ग्याग्हवी श्रुति हैं। ग्यरगत श्रनिया ८, ९. १०, ११ है।

इसी तरह धैवत निपाद के विवादित्व के परिहार के लिए ‘काक-दी नामक एक नया स्वर उत्पन्न हुआ।

स्वर के ‘कलत्व’ अर्थात् अव्यक्त मघग्ना के कारण इसका ‘काकली’ नाम पड़ा। इसका स्वरस्थान पढ्ज की द्वितीय श्रणि ) । स्वरगत श्रुतियों २१, २२, १, २ है।

इस तरह के मिश्रित स्वरों का नाम गाधारण या विकृत स्वर है। कालान्तर और देशान्तर में कुछ और विवृत स्वरो की उतानति हुई है।

इनमें काकली स्वर के स्वरस्थान को एक श्रुति नीना करके कैशिकी’ ना मं का एक स्वर उत्पन्न हुआ। है। इन काकली व कैशिकी स्वरों का अनर केशमाथ यानी अतिस्वल्प है।

इसलिए इसका नाम कैशिकी पड़ा। उसका स्वरस्थान पट्ज की प्रथम श्वति है। स्तवरगत थनियाई। पसी तरद जगंध्र के एव साधारण गान्धार ये पहले उत्पन्न विकृतस्वर है ।

बाद में एक श्रुति को मिलाकर चतुःश्रुति ऋषभ का जन्म हुआ; और ऋपभस्वर से गान्धार की दो श्रुतियों को मिला- कर पञ्चश्रुति ऋषभ भी हुआ।

मध्यम की प्रथम श्रुति को भी मिलाकर पट् श्रुति ऋषभ भी हुआ। इसी तरह धैवत में भी चतुःश्रुति धैवत, पञ्चश्रुति मैवत और षट्श्रुति धैवत भी उत्पन्न हुए। ये सब विकृतस्वर कर्नाटक और हिन्दुस्थानी सप्रदायों मे अब भी इस्तेमाल किये जाते हैं ।

लेखक वासुदेव शास्त्री-Vasudev Shastri
भाषा हिन्दी
कुल पृष्ठ 429
Pdf साइज़33.8 MB
CategoryMusic

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