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सामवेद भाष्यम – Samved Pdf Free Download
पुस्तक का एक मशीनी अंश
उसे अपना शिकार बना लेती हैं, इसलिए इस वासना को ‘वृत्र’ कहते हैं। इस वृत्र को वह अग्निः- प्रभु ही जंघनत्-नष्ट करता है। परमेश्वर का स्मरण एकमात्र उपाय है जिससे वासनाओं का संहार होता है,
परन्तु वह अग्नि द्रविणस्य प्रविण को चाहता है। यदि मनुष्य अपने पास धन का संचय किये रक्खे और यह चाह कि प्र उसकी वासनाओं को विनष्ट कर दें तो यह नहीं हो सकता।
वस्तुतः विपद्यया-विशष्ट स्तुति के द्वारा ही हम यह कार्य प्रभु से करा पाते हैं। उस प्रभु की विशिष्ट स्तुति यही है कि हम उसी से प्रीति करें, हमें धन से प्रीति न हो।
प्रभु की यही ‘ऐकान्तिकी भक्ति’ है। प्रभु और भन दोनों की उपासना युगपत् सम्भव नहीं है. अत: हम धन उस प्रभु को अर्पित कर दें और तब हमारी इस विशिष्ट स्तुति से वे प्रभु हमारे लिए मूतों का संहार करेंगे।
प्रभु की प्राप्ति का क्रम यह होता है कि हम उसे अपने हृदयीं मं समिद्धः-दीप्त करते हैं। प्रकृति के सौन्दर्य, व्यवस्था आदि से उसका आभास (दीतिर हमारे हृदयों में होता है. तब हम उसकी ओर चलते हैं।
वह हमसे शुक्रः-जाया जाता है। लशुन् गतौ) और अन्त में उसकी ओर चलते-चलते हम उसे प्राप्त कर लेते हैं, वह आहत.-हमसे समर्पित होता है। हम उसके प्रति आत्मसमर्पण करते हैं।
किसी भी वस्तु की प्राप्ति का क्रम ‘ज्ञान, गमन और प्राप्ति’ ही है। हमने प्रभु के प्रति अपना अर्पण किया. उसने हमें ‘वृत्रविनाशरूप’ कार्य के लिए शक्ति-सम्पन्न बनाया और हम इस मन्त्र के ऋषि भरद्वाज’ कहलाये।
भावार्थ-अनन्य भक्ति स्तुति के अनुसा व्यबहार से आराधित प्रभु जीव की वासनाओं का विनाश करते हैं।माता-पिता के स्नेह में भी कुछ स्वार्थ हो सकता है. परन्तु उस स्वाभाविक मित्र का स्नेह स्वार्थ को गन्ध से परे है।
‘विश्वामित्र’ विश्व का सबका मित्र है। सभी के साथ इसका स्नेह है। यह सभी का (प्रमीति) – मृत्यु हिंसा या पाप से त्राण करनेवाला है। किसी से द्वेष न करते हुए सभी के हित में प्रवृत्त रहना, इसके जीवन का उद्देश्य है।
यह ‘सर्वभूतहिते रतः ‘ व्यक्ति ही प्रभु का सच्चा गायन करनेवाला है, अतः यह वस्तुतः ‘गाथिन’ है।
‘जमद् अग्नि” खूब खानेवाली है अग्नि जिसकी ‘ ऐसा यह जमदग्नि पूर्ण स्वस्थ शरीस्वाला है। जाठराग्नि की मन्दता ही मनुष्य को अस्वस्थ कर देती है।
सभी शारीरिक रोगों का मूल यही मन्दाग्नि है। जो व्यक्ति भोजनादि की व्यवस्था का ठीक पालन करता हुआ जाठराग्रि को मन्द नहीं होने देता वह जमदग्रि बना रहता है।
जमदग्नि का शरीर व मन दोनों स्वस्थ होते हैं। उसके मन में ईर्ष्या-द्वेष आदि की भावनाएँ नहीं होतीं। यही वस्तुतः सच्चा ‘विश्वामित्र’ बन माता है।
एवं जमदग्नि बनना हेतु है, विश्वामित्र होना उसका परिणाम इस मन्त्र का ऋषि कारण के दृष्टिकोण से जमदग्रि कहलाती है और कार्य के दृष्टिकोण से विश्वामित्र ।
यह विश्वामित्र इस रूप में प्रार्थना करता है- मित्रावरुणा मित्र और वरुण, अर्थात् प्राण और अपान नः- हमारे गव्यूतिम्- (गावः यूयन्ते यस्मिन्) इन्द्रियों के प्रसार को घृतैः क्षरण व दीप्ति से आ उक्षतम् समन्तात् सिक्त कर दें।
वैदिक साहित्य में प्राणापान के लिए प्रायः ‘मित्रावरुणा’ शब्द का प्रयोग मिलता है। इन प्राणापान के वश में कर लेने से इन्द्रियों के दोष दग्ध हो जाते हैं।
‘गो’ शब्द ज्ञानेन्द्रियों के लिए प्रयुक्त होता है प्राण साधना से ये ज्ञानेन्द्रियाँ निर्मल होकर दीप्त हो उठती हैं। ‘घृत’ शब्द की भी दो भावनाएँ है२. मलक्षरण व २. दीप्ति।
ये प्राणापान होने पर हमारी ज्ञानेन्द्रियों को निर्मलता व दीप्ति से सींच देते हैं। उस समय कान भद्र ही सुनते हैं और आँखें भद्र ही देखती हैं।
ज्ञानेन्द्रियों को दीप्त करने के साथ ये सूक्रतू उत्तम कर्मोंवाले प्राणापान हमारे रजांसि रजोगुण समुद्भूत कर्मों को मध्वा माधुर्य से सींच डालते हैं।
प्राणसाधनावाले व्यक्ति के कर्म क्रूर न होकर मधुर होते हैं। मन में ईर्ष्या-द्वेष व बदले की भावना ही नहीं तो कर्मों में माधुर्य तो होगा ही। भावार्थ- प्राणसाधना से हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों को निर्मल व दीप्त बनाएँ और कर्मेन्द्रियों को मधुर ।
लेखक | हरिशरण सिद्धान्तालंकार-Harisharan Siddhantalankar |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 449 |
Pdf साइज़ | 19.3 MB |
Category | Religious |
सामवेद भाष्यम – Samved Bhashyam Pdf Free Download